राकेश दुबे@प्रतिदिन। स्वच्छ भारत अभियान के एक वर्ष की जो रिपोर्ट सम्मने आई है, वह काफी निराशाजनक है। भारत के चार सौ तिहत्तर शहरों में किए गए एक सर्वे के मुताबिक कर्नाटक का मैसूर नगर देश का सबसे स्वच्छ शहर है, जबकि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का शीर्ष दस में भी नाम नहीं है। दिल्ली ही क्यों, दस की इस सूची में उत्तर भारत का एक भी शहर शामिल नहीं है।
स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत घर-घर में शौचालय बनाने का भी लक्ष्य निश्चित किया गया है। इसके बावजूद भारत में अब भी तिरपन फीसद लोगों के पास शौचालय की मूलभूत सुविधा नहीं है। यानी हर दूसरा व्यक्ति खुले में शौच करने को मजबूर है। आंकड़े बताते हैं कि १९९२-९३ में जहां सत्तर फीसद लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं थी, वहीं यह आंकड़ा घट कर २००७-०८ में इक्यावन फीसद रह गया था। लेकिन विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार यह आंकड़ा तिरपन प्रतिशत है। ग्रामीण भारत के छियासठ प्रतिशत और शहरी भारत के उन्नीस प्रतिशत लोग शौचालय की सुविधा से वंचित हैं।
राज्यों की हालत देंखे तो झारखंड और बिहार की स्थिति कुछ ज्यादा ही खराब है, जहां तिरासी प्रतिशत लोग शौच के लिए खुले स्थानों का प्रयोग करते हैं। छत्तीसगढ़ में ८२ .१ प्रतिशत, राजस्थान में ७३.९ प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में ७२.६ प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में ५८ प्रतिशत, उत्तराखंड में ४५ प्रतिशत, हरियाणा में ४२ प्रतिशत, हिमाचल में ३२ प्रतिशत लोगों को खुले में शौच करना पड़ता है।
कुछ राज्यों की स्थिति बेहतर मानी जा सकती है, जिनमें मिजोरम प्रथम, लक्षद्वीप दूसरे, केरल तीसरे और दिल्ली चौथे स्थान पर है। मिजोरम में ९८.८ , लक्षद्वीप में ९८.२ केरल में ९६.७ और दिल्ली में ९४.३ प्रतिशत लोगों के पास शौचालय की सुविधा मौजूद है। इन राज्यों के आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि जिन राज्यों में गरीब तबके की आबादी अधिक है, वहां शौचालय की सुविधा से वंचित लोगों की तादाद भी अधिक है। इस तरह इस समस्या और गरीबी में एक सीधा संबंध दिखता है। जाहिर-सी बात है कि जब गरीबों के पास सिर ढकने के लिए आशियाना ही नहीं होगा तो शौचालय की सुविधा के बारे में वे कैसे सोचेंगे!
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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