राकेश दुबे@प्रतिदिन। राजधानी से महज तीस किलोमीटर दूर बिसाहड़ा नामक गांव में अल्पसंख्यक समुदाय के एक व्यक्ति की हत्या के चलते पूरे देश के इंसाफपसंद तबकों में चिंता का माहौल है। दो साल के अंदर तीन तर्कशील विचारकों, वामपंथी कार्यकर्ताओं की हुई हत्या के कारण पहले से उद्वेलित प्रबुद्ध समाज के कई अग्रणी हस्ताक्षरों ने देश की बहुलतावादी संस्कृति पर आसन्न खतरों के चलते उन्हें प्राप्त प्रतिष्ठित सम्मान वापस कर दिए हैं। और यह सवाल अब जोर-शोर से उठ रहा है कि डिजिटल इंडिया के नारों के बीच क्या डेमोक्रेटिक इंडिया तिरोहित हो जाएगा? वैसे इस बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है |
यह बात भी सामने आ रही है कि किस तरह कई ‘सेनाओं’ के निर्माण के जरिए तीन महीने से पूरे इलाके में तनाव का माहौल बनाया जा रहा था। दादरी-कांड ने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के गांव कोट राधा किशन में पिछले साल हुई एक घटना की याद ताजा कर दी है, जब ईंट भट्ठे पर मजदूरी करने वाले शहजाद मसीह और उसकी गर्भवती पत्नी को ईशनिंदा के आरोप में उनके ही गांव की भीड़ ने ईंटों से पीट-पीट कर मार डाला था। शहजाद और उसकी पत्नी को न केवल र्इंटों से मारा गया बल्कि उन्मादी भीड़ उन्हें ट्रैक्टर के पीछे बांध कर घसीटते हुए ले गई; उनकी लाशें जला दी गर्इं और पास के र्इंट भट्ठे में फेंक दी गर्इं। दोनों ही मामलों में कई समानताएं हैं। न गोकशी की अफवाह को जांचने का प्रयास किया गया और न ही ईशनिंदा के आरोपों की पुष्टि करने की जरूरत हुजूम में शामिल किसी ने महसूस की। दोनों के केंद्र में मन्दिर अगर मस्जिद है और वे कम से कम इस काम [उकसाने ] के लिए नहीं बने हैं |
कम से कम भारत में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सहिष्णुता की अपील की है, जिससे यह सवाल उठने लगा कि क्या प्रधानमंत्री अपनी चुप्पी तोड़ेंगे? उनकी चुप्पी टूटी, पर उसमें वह बात नहीं थी, जो सरकार के मुखिया की प्रतिक्रिया में होनी चाहिए? उन्होंने बस एकता और धार्मिक सौहार्द का एक उपदेश दे दिया। वह भी उस समय जब लोग एकता और सौहार्द को छिन्न-भिन्न करने में जुटे हैं| सख्त चेतावनी और ऐसी घटनाओं की कड़ी निंदा की प्रधानमंत्री से अपेक्षा थी |
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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