राकेश दुबे@प्रतिदिन। जो जीवनरक्षक दवाएं पहले से आम मरीजों की पहुंच से बाहर हैं, उन्हें कमाई में अंधी हो चुकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां किस तरह और महंगा करती जा रही हैं मुश्किल यह है कि यह मामला सिर्फ कैंसर की दवा डाराप्रिम दवा तक सीमित नहीं है| एक-एक करके तमाम जीवनरक्षक दवाएं महंगी होती जा रही हैं जिससे इलाज का खर्च सहन करना लोगों के बूते से बाहर हो गया है| हाल-फिलहाल टीबी के उपचार की अहम दवा ‘साइक्लोसेराइन’ की 30 गोलियों की कीमत 500 डॉलर से बढ़ाकर 10,800 डॉलर कर दी गई, क्योंकि इसका पेटेंट रॉडेलिस थेरेप्यूटिक्स ने एक अन्य कंपनी से खरीदा है। हृदय रोगों के इलाज की दो मुख्य दवाओं- आइस्यूपिल्र व नाइट्रोप्रेस को मैराथन फार्मास्यूटिकल ने एक अन्य कंपनी से खरीदा तो इनकी कीमत में क्रमश: 525 व 202 प्रतिशत का इजाफा कर दिया|
कुछ ऐसा ही हाल प्रसिद्ध एंटीबायोटिक दवा डॉक्सीसाइक्लेन का हुआ जिसकी कीमत अक्टूबर 2013 से अप्रैल 2014 के बीच 20 डॉलर से बढ़ाकर 1849 डॉलर कर दी गई| दो साल पहले अप्रैल, 2013 में दवाओं की कीमत का एक बड़ा मुद्दा भारत में तब उठा था, जब स्विट्जरलैंड की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी नोवार्टसि-एजी द्वारा बनाई जाने वाली ब्लड कैंसर की दवा ग्लाइवेक की एक महीने की खुराक की कीमत सीधे एक लाख 30 हजार रुपये तक पहुंचा दी गई थी| और दावा किया गया कि इसी दवा के जेनेरिक संस्करण की इतनी ही खुराक सिर्फ दस हजार रुपये में आ जाती है, तो ग्लाइवेक को इतना महंगा करने की वजह क्या है?
जीवनरक्षक दवाएं दिनोंदिन महंगी क्यों हो रही है, इसे डाराप्रिम दवा बनाने व बेचने के सारे अधिकार हासिल करने वाली अमेरिकी कंपनी ट्यूरिंग फार्मास्युटिकल ने साबित कर दिया है| अन्य दवा कंपनियों की तरह ट्यूरिंग फार्मा इसके लिए अधिग्रहण, पेटेंट हासिल करने में हुए खर्च आदि जैसे कारणों को गिना रही है| इन कंपनियों के मत में पेटेंटेड दवाओं के महंगा होने का कारण उनके शोध और विकास पर लगने वाला श्रम व पैसा है| क्या यह लाभ मरीज के परिजनों को नहीं मार देगा ?
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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