राकेश दुबे@प्रतिदिन। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मोदी सरकार के मंत्री आश्चर्यजनक कह रहे है है। सदानंद गौड़ा अकेले नहीं होंगे, जिन्हें इस फैसले पर आश्चर्य हुआ है, लेकिन ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि इसके बाद क्या होगा? एनजेएसी को बनाने का फैसला संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कानून का है और अदालत ने इसे गैर-सांविधानिक करार दिया है, इसलिए यह देखना है कि अब सरकार या विधायिका क्या करती है।यह उम्मीद करनी चाहिए कि यह विवाद विधायिका बनाम न्यायपालिका या जनता की चुनी हुई संसद की वरीयता बनाम न्यायपालिका की संविधान की व्याख्या का रूप न धारण कर ले। इस मुद्दे पर पहले ही न्यायपालिका और सरकार के बीच काफी विवाद हो चुका है, अगर यह विवाद रचनात्मक हल तक पहुंचता है, तो यह अच्छा है। मौजूदा स्थिति में भारत एक नया सांविधानिक संकट तो नहीं ही चाहता।
विवाद की जड़ कॉलेजियम तंत्र है, जिसके तहत अब तक उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति होती आई है। कॉलेजियम तंत्र का अर्थ यह है कि सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ मिलकर जजों के नाम तय करते हैं। कॉलेजियम का जिक्र संविधान में कहीं नहीं है। लेकिन तीन अदालती फैसलों द्वारा, जिन्हें 'थ्री जजेज केस' कहा जाता है, सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम तंत्र को स्थापित कर दिया, जिसके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश और अन्य वरिष्ठ जजों की राय ही जजों की नियुक्ति के बारे में अंतिम होती है। आजादी के शुरुआती सालों में न्यायाधीशों के पास ऐसी अनिर्बाध सत्ता नहीं थी और राष्ट्रपति, सरकार और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश या अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों की सलाह से नियुक्तियां करते थे। इमरजेंसी के दौर में उच्च न्यायपालिका में ऐसी कुछ नियुक्तियां हुईं, जिन पर सवाल उठे।उसी दौर में यह भी बात उठी कि न्यायपालिका को सरकार के उद्देश्यों के प्रति वफादार होना चाहिए।
इमरजेंसी के बाद न्यायपालिका ने इस सिलसिले में सरकार की भूमिका को घटाना शुरू किया और धीरे-धीरे कॉलेजियम तंत्र स्थापित हो गया। कई न्यायविद भी इसके खिलाफ थे, क्योंकि उनके मुताबिक यह तंत्र संविधान के अनुरूप नहीं था और पूरी तरह अपारदर्शी था। यह भी कहा गया कि लोकतंत्र के सभी स्तंभों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि जजों की नियुक्ति सिर्फ जज ही न करें, बल्कि उसमें अन्य स्तंभों की भी भूमिका हो। इसी नजरिये से यह कानून बनाया गया था, जिसमें प्रधानमंत्री, कानून मंत्री, विपक्ष के नेता भी सदस्य थे, सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश और वरिष्ठ न्यायाधीश भी। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि कॉलेजियम ही सांविधानिक है, इसलिए एनजेएसी की स्थापना अवैध है।
यहां सवाल यह है कि क्या संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित कानून को न्यायपालिका रद्द कर सकती है, अगर वह कानून संविधान की मूल प्रतिज्ञाओं के विरुद्ध नहीं है? यदि लोकतंत्र में जनता की इच्छा सर्वोपरि है, तो क्या न्यायपालिका इस इच्छा के खिलाफ जा रही है? कई लोग मानते हैं कि कुछ बुरे अनुभवों के कारण न्यायपालिका, राजनेताओं व कार्यपालिका को शक की नजर से देखती है। राजनेताओं ने भी अपनी विश्वसनीयता गंवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जिन सांविधानिक पदों पर नियुक्ति का अधिकार सरकार का है, उन पर अक्सर राजनीतिक रूप से मुफीद लोगों को बिठाया जाता है। यहां एक ओर जरूरत न्यायपालिका की जवाबदेही की है, वहीं राजनेताओं और अधिकारियों की विश्वसनीयता की भी है।