राकेश दुबे@प्रतिदिन। जब नरेंद्र मोदी के राजनीतिक विरोधी जब 'सूट-बूट की सरकार' कहकर उनका मजाक उड़ाते हैं, तो अजीब लगता है। उनके विरोधियों को भी स्वीकार करना होगा कि यह पूर्व संघ प्रचारक, जिसने अपने बुनियादी मूल्यों, अनुशासन, चरित्र और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कठोर प्रशिक्षण से उत्पन्न कार्य संस्कृति को आत्मसात किया है, दुनिया की कुछेक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सीईओ के बीच भी ऊंचा दिखता है।
उन्होंने असीम ऊर्जा, असाधारण आत्मविश्वास और उच्च आत्मसम्मान का संचार किया है। उन्होंने भारत के एक आकर्षक और मोहक नजरिये को दुनिया के सामने पेश किया-भारत को आर्थिक रूप से बदलने और एक मजबूत, विकसित, शांतिप्रिय राष्ट्र बनाने की प्रतिबद्धता जताई। एक सीईओ की तरह उन्होंने भारत को एक आकर्षक निवेश गंतव्य के रूप में प्रबलता से पेश किया और उद्देश्यपूर्ण ढंग से अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाईं और भविष्य की अपनी योजनाओं का खुलासा किया।
उनका मार्केटिंग अभियान न्यूयॉर्क में इससे बड़ा और बेहतर नहीं हो सकता था। उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े मीडिया दिग्गज रूपर्ट मर्डोक के नेतृत्व में मीडिया एवं मनोरंजन उद्योग के पंद्रह नेताओं के साथ बातचीत की। रूपर्ट मर्डोक ने मोदी को आजादी के बाद देश का सबसे बड़ा नेता बताया।
वह अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के 42 सीईओ के साथ रात्रिभोज में शामिल हुए, जिनकी कुल संपत्ति 45 खरब डॉलर है। भारत में निवेश के लिए मजबूत दलील देते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे वक्त में जब बाकी दुनिया में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश घट रहा है, भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जो जाहिर तौर पर निवेशकों के भारत को लेकर भरोसे का संकेत है। तमाम सीईओ के बीच यह आम धारणा थी कि भारत बड़ा अवसर प्रदान कर रहा है और भारत में निवेश को अनुकूल बनाने के प्रति मोदी गंभीर हैं। हालांकि वे नौकरशाही की बाधाओं, नियमन हटाने की धीमी गति, जर्जर बुनियादी ढांचे, अप्रत्याशित कर व्यवस्था, अपर्याप्त दिवालियापन, अनुंबध कानून, विवाद समाधान तंत्र और राजनीतिक गतिरोध, जिसने मोदी सरकार को भूमि अधिग्रहण विधेयक, जीएसटी एवं खुदरा व्यापार में एफडीआई पर आगे बढ़ने से रोक दिया, को लेकर चिंतित थे।
मोदी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्यता दिलाने की भी पुरजोर वकालत की। संयुक्त राष्ट्र को इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों से निपटने के लिए ज्यादा प्रतिनिधित्व, ज्यादा विश्वसनीय और ज्यादा सक्षम बनाने के लिए सुधारों और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, वैश्विक अर्थव्यवस्था के प्रमुख वाहक, और बड़े महाद्वीप की प्रमुख आवाज को उसमें शामिल करने के पक्ष में मोदी के तर्क की मजबूती पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। हालांकि चीन और पाकिस्तान की तरफ से कड़े विरोध को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा के 70वें सत्र के दौरान नियत समय के भीतर सुधार प्रक्रिया के पूरे होने की संभावना बिल्कुल नहीं है। लगता है कि मोदी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता के लिए दांव खेलने के लिए तैयार हैं, वैसे भी इसमें कोई हानि नहीं है। विरोधियों के लिए भी एक टिप,संयुक्त राष्ट्र में सभ्यवेश में ही जाया जा सकता है | गणवेश में तो प्रधानमन्त्री कार्यालय भी नहीं |
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com