राकेश दुबे@प्रतिदिन। प्रश्न यह है कि क्या महंगाई का प्रभाव समस्त समाज पर समान रूप से पड़ता है? हरगिज नहीं। समाज में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जिनकी आय का स्रोत उनकी मजदूरी है, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। दूसरी तरफ, वे जिनकी आय का स्रोत संपत्ति होती है। यानी ये लोग ब्याज, किराया और लाभ के रूप में अधिशेष अर्जित करते हैं। समाज के प्रथम वर्ग में आने वाले लोगों में भी दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों का है जिसकी आय पूर्णत: जड़ता की स्थिति में है। दूसरी तरफ, सरकारी बाबू-कर्मचारी हैं जिनकी आय महंगाई के हिसाब से कुछ बढ़ जाती है।
महंगाई हमेशा संपत्तिधारी वर्ग के पक्ष में होती है, क्योंकि महंगाई के दौर में उसकी संपत्ति की कीमतें बढ़ती हैं। फलस्वरूप उसका लाभ भी तेजी से बढ़ता है। अगर महंगाई की दर पांच प्रतिशत से कम हो जाए तो ये लोग उसे मंदी कह कर हाय-तौबा मचाते हैं। सीमित आय वाले लोग, चाहे वे असंगठित क्षेत्र के मजदूर हों या किसान, उनकी आय में होने वाले परिवर्तन की अपेक्षा महंगाई में होने वाला परिवर्तन कहीं अधिक होता है। इस वर्ग के लोग अपनी आय का अधिकतम हिस्सा, चालीस से साठ प्रतिशत खाद्य पदार्थों पर खर्च कर देते हैं। इसलिए महंगाई, खासकर खाद्य पदार्थों की कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी का प्रत्यक्ष प्रभाव इसी वर्ग पर देखने को मिलता है, जबकि संपत्तिवान उच्च वर्ग महंगाई के फलस्वरूप रातोंरात मालामाल हो जाता है। क्या आपने कभी सोचा है कि बाजार से जो महंगी सब्जियां आप खरीद कर लाते हैं, उसका फायदा उसके फुटकर विक्रेता या किसान को मिल पाता है? आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि फुटकर विके्रता जो मात्र कमीशन एजेंट होता है, और किसान जो औने-पौने दामों पर अपनी उपज को बेचने को मजबूर होता है ताकि अपने खर्च निकाल सके उसे तो इस महंगाई में कुछ मिलता ही नहीं है।
उदाहरण के लिए, जो अरहर की दाल आप डेढ़ सौ से दो सौ रुपए प्रतिकिलो के भाव से खरीदते हैं, वह किसान से महज तीस से पचास रुपए प्रति किलो में खरीदी जाती है। यानी डेढ़ सौ-दो सौ रुपए प्रति किलो का अधिशेष। आखिर यह अधिशेष जाता कहां है? यह जाता है देशी-विदेशी सट्टेबाजों की जेब में। क्या आपको लगता है कि जो प्याज आप साठ से अस्सी रुपए प्रति किलो के भाव से खरीदते हैं उसका कितना अंश उसे पैदा करने वाले किसानों, उसको ढोने वाले ट्रक-ड्राइवरों और मजदूरों को मिलता होगा? अधिकांश हिस्सा जाता है इन खाद्य पदार्थों पर कुंडली मार कर बैठ जाने वाले सट्टेबाजों-जमाखोरों की जेब में।ट सट्टेबाजी को अब सरकार ने फ्यूचर ट्रेडिंग यानी वायदा कारोबार का कानूनी जामा पहना दिया है। इस धंधे में देशी-विदेशी पूंजीपति समान रूप से प्रतिभागी हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियां प्राथमिक बाजार (खेतों) से औने-पौने दाम पर पैदावार की खरीद करती हैं और सट्टेबाजी करके इनकी कीमतें बढ़ाती हैं। हमारी सरकार को चलाने वाले नौकरशाह और राजनेता जानबूझ कर एक तो खाद्य पदार्थों की सरकारी खरीद कम करते हैं, दूसरी तरफ सरकारी गोदामों में पड़े-पड़े अनाज को सड़ने देते हैं। उन्हें शराब बनाने वाली कंपनियों को औने-पौने दामों पर बेच दिया जाता है। कई बार ऐसा भी देखने में आया है | सरकार से ज्यादा समाज को सोचना होगा |
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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