राकेश दुबे@प्रतिदिन। एशियन सेंटर फॉर हयूमेन राइट्स, नई दिल्ली ने भारत के विभिन्न राज्यों में स्थित बाल गृहों में बच्चों के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के मामलों का अध्ययन किया गया है, इसमें सरकारी सम्प्रेक्षण गृह,बाल गृह,आश्रय गृह और अनाथालयों के साथ प्रायवेट या स्वंसेवी संस्था द्वारा चलाए जा रहे संम्प्रेक्षण गृह, बालगृह, आश्रय गृह और अनाथालयों के हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि ”सरकारी गृहों के मामले में ज्यादातर अपराधकर्ता वहीं के कर्मचारी जैसे केयर- टेकर, रसोईया, सुरक्षाकर्मी शामिल थे। जबकि प्रायवेट या स्वंसेवी संस्था के द्वारा चलाये गृहों में अपराधकर्ता संस्था के मैनेजर/ संस्थापक, संचालक, उनके रिश्तेदार/दोस्त, अन्य कर्मचारी जैसे केयरटेकर, वार्डन, रसोईया, सुरक्षाकर्मी आदि शामिल थे।“
ज्यादातर राज्य सरकारों द्वारा जे.जे. होमस के लिए निरीक्षण कमेटी का गठन नही किया गया है। किशोर न्याय अधनियम २००७ के नियमों के अनुसार सभी तरह के गृहों में रहने वाले बच्चों का उनके जुर्म, आयु, लिंग के आधार पर वर्गीकरण करके उन्हे अलग अलग रखना चाहिए। लेकिन इसका पालन नही किया जा रहा है। इससे बड़े बच्चों द्वारा छोटे बच्चों के उत्पीड़न के संभावना बढ़ जाती है।
किशोर न्याय व्यवस्था अभी भी ठीक से लागू नही हो सकी है। बाल सुरक्षा के लिए काम करने वाली संस्था “आंगन” द्वारा ३१ संप्रेक्षण गृहों के कुल २६४ लड़कों से बात करने के बाद जो निष्कर्ष सामने आये हैं वे हमारी किशोर न्याय व्यवस्था की चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं। अध्ययन में शामिल ७२ प्रतिशत बच्चों ने बताया कि उन्हें किशोर न्याय बोर्ड के सामने प्रस्तुत करने से पहले पुलिस लॉक-अप में रखा गया था, ३८ प्रतिशत बच्चों का तो कहना था कि उन्हें पुलिस लॉक-अप में ७ से१० दिनों तक रखा गया था जो की पूरी तरह से कानून का उलंघन है।
इसी तरह से ४५ प्रतिशत बच्चों ने बताया कि पुलिस कस्टडी के दौरान उन्हें शारीरिक रूप से प्रताडि़त किया गया , जिसमें चमड़े की बेल्ट और लोहे की छड़ी तक का इस्तेमाल किया गया. कुछ बच्चों ने यह भी बताया कि उन्हें उन अपराधों को स्वीकार करने के लिए बुरी तरह से पीटा गया जो उन्होंने किया ही नहीं था।किशोर न्याय व्यवस्था की कार्यशाली और संवेदनहीनता को रेखांकित करते ७५ प्रतिशत बच्चों ने बताया कि पेशी के दौरान बोर्ड उनसे कोई सवाल नहीं पुछा और ना ही उनका पक्ष जानने का प्रयास किया।
शायद इन्हीं परिस्थितियों को देखते हुए २०१३ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किशोर गृहों के का निगरानी निर्णय लिया गया। इसके तहत एक पैनल का गठन किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने सभी राज्यों के हाई कोर्ट को भी लिखा कि वे अपने यहां एक जज को नामांकित करे, जो इन गृहों का निरीक्षण करेगें। समय-समय पर ये जज गृहों में जाकर देखेगें कि वे सही चल रहे है या नही और उन्हें पर्याप्त राशि प्राप्त हो रही है या नही और इसकी रिर्पोट वे राज्य सरकार और जुवेनाइल कमेटीयों को भेजेगी। सितंबर २०१५ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा केन्द्र और राज्य सरकारों को यह निर्देष दिया गया है कि देश में अपंजीकृत स्वंसेवी संस्था द्वारा चलाये जा रहे बाल गृहों को तत्काल बंद किया जाये और उन्हें किसी भी तरह की सरकारी फंड न दिया जाये |
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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