राकेश दुबे@प्रतिदिन। सहिष्णुता-असहिष्णुता को लेकर दिल्ली में रैली हो रही है। सरकार की और से दो बयान जारी हुए हैं दूसरा बयान ज्यादा नर्म है और उसमें आक्रामक तेवर नदारद हैं, शायद इस वक्त इसी रवैये की हमारे समाज को जरूरत है। यह सही है कि भारतीय समाज असहिष्णु हो ही नहीं सकता। भारत एक उदार लोकतंत्र है, जिसका शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर भरोसा है। इस बीच काफी लोगों ने देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता को लेकर बयान दिए हैं, क्यों ?। लेखकों, कलाकारों और वैज्ञानिकों के बाद रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और लॉर्ड मेघनाद देसाई और तो और मन मोहन सिंह ने भी बढ़ती असहिष्णुता पर चिंता जताई है।
सरकारी बयान का अगर पालन किया जाए, तो सहिष्णुता-असहिष्णुता को लेकर बहस ज्यादा सार्थक हो सकती है। बहस की जगह अब आरोप-प्रत्यारोप ने ले ली हैं, और दोनों पक्ष एक-दूसरे से नहीं, बल्कि अपने समान विचार वालों से ही मुखातिब हैं। यह माना जा सकता है कि भारत में पिछले दिनों सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं शायद बहुत ज्यादा नहीं बढ़ी हैं। न ही विरोधी विचार वालों को चुप कराने के लिए हिंसा का सहारा लेने का तरीका भारत में नया है। धुर दक्षिणपंथी और धुर वामपंथी संगठन अमूमन अपने वैचारिक विरोध को हिंसा से खत्म करने को जायज मानते हैं।
यह भी माना जा सकता है कि प्रोफेसर कलबुर्गी, गोविंद पनसरे की हत्या या दादरी में मोहम्मद अखलाक को पीट-पीट कर मार डालने की घटनाएं अपवाद हैं। लेकिन अगर इतने सारे प्रबुद्ध लोग इस वक्त असहिष्णुता के बढ़ने को लेकर आवाज उठा रहे हैं, तो यह सिर्फ वामपंथियों या अभिजात्य वर्गीय बुद्धिजीवियों का असंतोष नहीं है। कांग्रेस या अन्य राजनीतिक पार्टियों का विरोध तो फिर भी राजनीतिक लाभ के लिए माना जा सकता है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इतने सारे प्रतिष्ठित लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री किसी स्वार्थ की वजह से ऐसा कर रहे हैं।
सहिष्णुता या असहिष्णुता को हिंसा की घटनाओं की संख्या से नहीं जोड़ा जा सकता, क्योंकि ये धारणाएं अमूर्त हैं और वे व्यापक माहौल से जुड़ी होती हैं। अगर माहौल शक, संकीर्णता और उग्रता का हो, तो एक छोटी-सी घटना भी बड़ा प्रभाव छोड़ सकती है, और अगर माहौल उदारता और शांति का हो, तो उसी घटना को अपवाद मानकर छोड़ा जा सकता है। इन दिनों हिंदुत्ववादी संगठनों और नेताओं की अतिरिक्त सक्रियता और बयानबाजी ने माहौल को ऐसा बना दिया है कि सारी दुनिया में भारत की छवि खराब हो रही है। जब हम दुनिया में अपने आर्थिक विकास और उपलब्धियों को प्रचारित करते हैं, तभी कथित गोहत्या को लेकर एक व्यक्ति की हत्या सारे प्रचार पर पानी फेरने के लिए काफी है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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