राकेश दुबे@प्रतिदिन। भ्रष्टाचार निवारण कानून, 1988 के संशोधन विधेयक के मुताबिक, रिश्वत देने वाला भी अपराधी माना जा सकता है तथा भ्रष्ट कर्मचारी की आय से अधिक अर्जित संपत्ति को विशेष जज की अनुमति से जब्त करने का प्रावधान है। कॉरपोरेट तथा व्यापारिक संस्थानों द्वारा दी गई रिश्वत को भी इसमें शामिल किया गया है। सेवानिवृत्त अधिकारी के विरुद्ध अभियोग चलाने के लिए भी सक्षम अधिकारी से अनुमति लेनी होगी। भ्रष्टाचार के मामले में अभियोजन पक्ष को आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने वाले कर्मचारी की आपराधिक मनोवृति भी सिद्ध करनी पड़ेगी।
इस विधेयक में दो ही सकारात्मक बातें हैं। एक, भ्रष्टाचार से अर्जित संपत्ति जब्त करना तथा दूसरा, निगम तथा व्यापारिक संस्थानों द्वारा दी गई रिश्वत को इस कानून के अंतर्गत लाना। अन्यथा इस विधेयक के कुछ प्रावधान ऐसे हैं, जो 1988 के कानून से भी ज्यादा लचर हैं। भ्रष्टाचार के ज्यादातर मामलों में रिश्वत देने के लिए विवश होने वाला व्यक्ति भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं की मदद लेता है। प्रश्न यह है कि संशोधित विधेयक को देखते हुए क्या कोई रिश्वत की सूचना देने की हिम्मत करेगा? इसी तरह न्यायपालिका की धीमी गति एवं कार्यप्रणाली को देखते हुए अभियोजन पक्ष द्वारा भ्रष्टाचारी की आपराधिक मनोदशा सिद्ध कर पाना असंभव होगा।
पिछले लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा था। प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के प्रति शू्न्य सहनशक्ति की बात कर रहे हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार निरोधक संशोधन विधेयक को और धारदार होना चाहिए। इस समय भी देश 1919 के सिविल सेवा कोड तथा 1861 के पुलिस ऐक्ट जैसे सामंती कानूनों के जरिये चलाया जा रहा है। स्वतंत्र भारत में इसका नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा यानी आईएएस कर दिया गया, लेकिन इसका पूरा ढांचा वही सामंतशाही है। प्रशासन की पूरी भाग-दौड़ इस सेवा के अधिकारियों के हाथों में सिमट गई।
आंकड़े बताते हैं कि इस कैडर का एक चौथाई भाग भ्रष्टाचार के आरोपों में चिह्नित है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने आईएएस अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा था कि इस कैडर के अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के मामलों का फैसला सेवाकाल में ही हो जाना चाहिए। आईएएस कैडर की सेवा शर्तों को प्रशासनिक सुधार के द्वारा इस प्रकार बनाना चाहिए कि न वे भ्रष्टाचार कर सकें, न उनके अधीन कोई कर सके।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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