गणित का उलझा गणित

राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश में स्नातक स्तर पर गणित विषय का चयन करने वाले कम होते जा रहे है | कारण इस विषय में कोई अच्छा कैरियर नहीं दिखता| यह एक भ्रम है, जो उन लोगों ने फैलाया है, जो भारतीय प्रतिभा को आगे नहीं आने देना चाहते | पिछले साल अप्रैल के मध्य में कैलिफोर्निया स्थित प्रकाशन संस्था कैरियरकास्ट द्वारा जारी की गई जॉब्स रेटेड रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2013 में अमेरिका में गणितज्ञों का न्यूनतम औसत वेतनमान एक लाख डॉलर सालाना से अधिक रहा और इसमें 2022 तक 23 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। 

कैरियरकास्ट के मुताबिक, अमेरिका में गणितज्ञों की मांग बढ़ने के पीछे दुनिया में आंकड़ों पर आधारित (डाटा ड्रिवेन) कामकाज में काफी बढ़ोतरी हुई है और लगभग प्रत्येक आधुनिक कामकाज में गणितीय सिद्धांतों की जरूरत बढ़ गई है। यहां तक कि फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया नेटवर्किंग वेबसाइटों के संचालन तक में गणित के गूढ़ नियम काम कर रहे हैं। ध्यान रहे कि आज डाटा-सुरक्षा से लेकर कंप्यूटर विज्ञान, वित्तीय प्रबंधन, और शेयर बाजार के अध्ययन के सारे फार्मूलों की बुनियाद में गणित ही है। वह एमबीए से लेकर इंजीनियरिंग तक सभी की जड़ में है। इसके बावजूद हमारे युवा और बच्चे गणित से उस रूप में नहीं जुड़े हैं जिसका अभिप्राय जॉय आॅफ मैथ्स यानी गणित की गुत्थियों में डूबने-उतराने और उनका मजा लेने से लिया जाता है। 

पांच साल पहले आईसीएम यानी इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ मैथमैटिशियंस-2010  के उद््घाटन के समय तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने इस अरुचि का संज्ञान लेते हुए युवा पीढ़ी में गणित के लिए जज्बा पैदा करने की बात कही थी। उन्होंने यह भी कहा था कि यह एक गूढ़ विज्ञान है, लेकिन इसे लोकप्रिय बनाने के लिए इसके व्यावहारिक पक्ष पर और ध्यान देना होगा।

यह जानते हुए कि विज्ञान ही नहीं, कंप्यूटर या वित्त, किसी भी क्षेत्र भी गाड़ी गणित के बिना नहीं चलने वाली, जरूरी है कि कक्षाओं में इस विषय के प्रति दिलचस्पी जगाई जाए। लेकिन चुनौती यह है कि छात्रों को रोचक ढंग से गणित कैसे पढ़ाया जाए। कमी सिर्फ बच्चों की नहीं है बल्कि असल में उस प्रशिक्षण की है जो उन्हें नर्सरी से ही मिलनी चाहिए। छोटी उम्र में ही गणित में बच्चों की दिलचस्पी बढ़ाने की कोशिश हमारी शिक्षा व्यवस्था को करनी होगी। असल में कक्षाओं में जब बच्चे गणित के सवालों में उलझे रहते हैं, तब शिक्षक उनकी कोई मदद नहीं कर पाते। शायद इसका एक कारण यह है कि हमारे स्कूलों में एक तरफ तो छात्र-शिक्षक अनुपात बहुत बिगड़ा हुआ है और दूसरी तरफ ऐसे शिक्षक बहुत कम हैं जो छात्रों में गणित की बुनियाद मजबूत कर सकते हैं। 

पीसा जैसे टेस्ट के नतीजे एक नजर में हैरान जरूर करते हैं लेकिन देश के औसत स्कूली सिस्टम से इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं की जा सकती। आमतौर पर कक्षाओं में पढ़ाई परीक्षा केंद्रित है। उसमें किसी विषय की समझ पैदा करने और उसमें रुचि जगाने के बजाय रटंत विद्या पर जोर है। सरकारी स्कूलों के खराब बुनियादी ढांचे और सरकारी शिक्षा में निवेश की कमी से हालात और बिगड़ रहे हैं। स्कूली शिक्षा में आधारभूत सुधार किए बिना ग्लोबल स्टैंडर्ड की परीक्षा में सफलता पाने की कल्पना नहीं की जा सकती। 

असली चुनौती अध्यापन के तौर-तरीकों में ऐसा बदलाव लाने की है, जिससे ज्यादा से ज्यादा छात्रों में गणित के प्रति रुचि पैदा हो और वे उसका आनंद लेना सीख सकें। मैथमैटिक लैब बनाने जैसे नए प्रयोग अपने देश में हों, तो कुछ बात बन सकती है। लेकिन सवाल यही है कि क्या सरकार, समाज और हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसे बदलाव के लिए तैयार हैं? उल्लेखनीय यह है कि भारत में बच्चे भले ही गणित से दूर भाग रहे हों, पर ब्रिटेन-अमेरिका में भारतीय मूल के बच्चे ही विज्ञान और गणित में आगे रहते हैं- ऐसी खबरें अक्सर आती हैं। वैसे भारत में गणित अध्ययन-अध्यापन की परंपरा बहुत पुरानी है। आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त को कौन नहीं जानता। दुनिया को शून्य का ज्ञान सबसे पहले भारत ने ही कराया था। 


  • श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
  • संपर्क  9425022703
  • rakeshdubeyrsa@gmail.com 
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