राकेश दुबे@प्रतिदिन। निर्भया काण्ड से अब तक जो संदेश निकला है, वह संदेश यह है कि संसद विधेयक पास नहीं कर पा रही है, उच्च व सर्वोच्च न्यायालय इस किशोर अपराधी की रिहाई को सही समझता है, और हमारा कानून कुछ करने की स्थिति में नही, बिल्कुल असहाय है। इस अपराधी की मानसिक स्थिति अब भी शक के घेरे में है। अगर उसकी मन:स्थिति सही होती, तो सुप्रीम कोर्ट उसे कमेटी या एनजीओ की निगरानी में रखने की बात नहीं कहता। अगर अदालत ने मैनेजमेंट कमेटी की बात की है, तो कहीं-न-कहीं उसे भी लग रहा है कि यह किशोर बदला नहीं है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार को उचित फटकार लगाई।
मगर अदालत ने यह भी पूछा है कि आखिर केंद्र सरकार ने अब तक इस दिशा में कानून क्यों नहीं बनाए? या वह ऐसा कानून क्यों बनाती है कि इस तरह की मजबूरी समाज में पैदा न हो? इस घटना में शुरू से ही यह मांग की थी कि उस किशोर को जेल भेजकर सुरक्षा और अस्मिता की रक्षा जैसे सांविधानिक अधिकार सुनिश्चित किए जाएं। अगर यह अपराधी बाहर आएगा, तो जनता की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित हो सकेगी? चूंकि उसकी पहचान सामने नहीं आई है, इसलिए लोगों को यह कैसे पता चलेगा कि उनके बीच जो शख्स है, वह बर्बर मानसिकता वाला है? इस मामले में एक सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि किशोर अपराधी को जेल भेजना उसके अधिकारों का हनन करना है। बेशक अपराधी को बचाव का मौका मिले, यह उसका अधिकार है। इससे कोई इनकार नहीं कि अपरिपक्व मानसिकता के कारण बाल्यावस्था में अपराध हो सकते हैं। मगर क्या सरकार इस अपराधी का यह अधिकार भी सुनिश्चित कर सकी? उसने न तो अपराधी के अधिकार सुनिश्चित किए, और न ही पीड़िता के। दिल्ली सरकार का कुसूर यह है कि वह अपने अंतर्गत आने वाले सुधार गृहों की निगरानी की बेहतर व्यवस्था अब तक नहीं कर सकी है। वह न तो मॉनिर्टंरग कर पा रही है, और न ही यह देख पा रही है कि वहां कोई मनोचिकित्सक मौजूद है भी अथवा नहीं। जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड किस तरह काम कर रहा है, इसकी भी कोई समीक्षा उसने नहीं की है।
हालांकि सारा दोष राज्य सरकार का ही नहीं है। इन तीन वर्षों में केंद्र सरकार के पास भी इतना वक्त नहीं रहा कि वह इसे लेकर कोई कानून बनाए। बेशक मई,२०१५ में किशोर न्याय (संशोधन) विधेयक लोकसभा में पारित किया गया। मगर इसे राज्यसभा से अभी मंजूरी नहीं मिली है। केंद्र सरकार यह संदेश देना चाहती है कि आने वाले समय में वह इस तरह के मामलों के लिए कानून में संशोधन करने को तैयार है, मगर संसद में विधेयक लंबित रहने के कारण ऐसा संभव नहीं हो सका। तब भी निर्भया के अपराधी के बाहर आने से पूरे देश में यह बहस जरूर तेज हुई है कि हमारे नीति-नियंताओं की क्या जिम्मेदारी है, उनकी कितनी भूमिका है, और वे अपनी जिम्मेदारियां कितनी गंभीरता से निभा रहे हैं? सवाल यह भी है कि जब भूमि अधिग्रहण को लेकर अध्यादेश पर अध्यादेश लाए जा सकते हैं, तो महिलाओं की सुरक्षा को लेकर ऐसी कोई पहल क्यों नहीं हो सकती? सत्ता में बैठे लोग ही न्याय व्यवस्था की कमियों को दुरुस्त कर सकते हैं, मगर ऐसा करने में वे अब तक नाकाम रहे हैं।हमें यह बात समझनी होगी कि कानून सामाजिक वास्तविकता देखकर ही बनाए जाते हैं। अगर समाज बदल रहा है, और छोटी उम्र के बच्चे भी गंभीर अपराधों को अंजाम दे रहे हैं, तो सजा में भी उसी तरह से बदलाव जरूरी हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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