
इन प्रावधानों के विरुद्ध अदालत में याचिका दायर की गई थी, जिस पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस कदम की वैधानिकता को स्वीकृति प्रदान कर दी। अब सवाल है कि क्या वास्तव में ऐसा करना जमीनी लोकतंत्र के लिए अच्छा कदम साबित होगा। आरंभिक तौर पर देखने से प्रतीत होता है कि इन प्रावधानों से करीब अस्सी फीसद ग्रामीण आबादी चुनाव लड़ने से वंचित हो सकती है। गांवों में ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे, जिनकी स्कूली शिक्षा नहीं हो पाई, पर अपने कामकाज के जरिए उनकी लोकप्रियता खासी है।
ऐसे लोगों के हाथों में स्थानीय प्रशासन का नेतृत्व हो तो कुछ बेहतर नतीजों की उम्मीद बनती है। पर इस तरह के अनिवार्य प्रावधानों के कारण हमें ऐसे कुशल लोगों की क्षमता से वंचित रहना पड़ रहा है। आज विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत विश्व मानचित्र पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्शाता है, तो इसके पीछे कहीं न कहीं जमीनी लोकतंत्र यानी ग्राम पंचायत स्तर के लोकतंत्र की अहम भूमिका है। यह अलग बात है कि अब भी इस स्तर पर लोकतांत्रिक परिपक्वता स्थापित नहीं हो सकी है, पर इस दिशा में जितने भी प्रयास किए गए हैं उससे काफी बदलाव रेखांकित हुए हैं।
पर ऐसे बदलाव, जो लोगों को प्रतिभागिता से वंचित कर रहे हों, वे स्वीकार्य नहीं हैं। और ऐसा करना विकेंद्रीकरण के मूल उद्देश्यों के प्रतिकूल होगा। अगर पंचायत स्तर पर ऐसे प्रावधान लाए जा रहे हैं, तो पहले विधानसभा के लिए लाए जाने चाहिए। वैसे दूसरी तरफ देखा जाए तो ऐसे प्रावधान कुछ मामलों में प्रगतिशील कदम लगते हैं, पर यह प्रगतिशीलता तब तक किसी काम की नहीं, जब तक हमारी आधारभूत संरचनाएं यानी लोगों का सामाजिक-आर्थिक स्तर उसके लायक न हो जाए|
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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