मोदी राज में रेल की हालत पतली

Bhopal Samachar
मुकेश कुमार सिंह। भारतीय रेल का कायाकल्प करने में नरेन्द्र मोदी सरकार विफल साबित हुई है. रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने पिछले रेल बजट में जो लक्ष्य रखे थे, वो उन्हें हासिल नहीं कर पाये. रेलवे की माली हालत भी बहुत पतली है. वो भारी घाटे में है. इसीलिए आसार हैं कि महीने भर बाद पेश होने वाले रेलवे बजट में इस बार यात्री भाड़े में भारी बढ़ोत्तरी होगी.

रेलवे के कुल राजस्व में माल भाड़ा की हिस्सेदारी 65 फ़ीसदी की है. लेकिन इसमें कोई ख़ास इज़ाफ़ा करने की गुंजाइश नहीं है क्योंकि माल भाड़ा पहले से ही अपने ऊँचे स्तर पर है. इसीलिए संकेत हैं कि इस बार रेल बजट में सामान्य दर्ज़े और महानगरीय सेवाओं के भाड़े को भी ख़ूब बढ़ाया जाएगा. रेलवे के क़रीब 55 फ़ीसदी मुसाफ़िर इसी तबक़े के हैं.

अभी रेलवे क़रीब 32 हज़ार करोड़ रुपये की रियायती सेवाएँ मुहैया करवाती है. इसमें से क़रीब 22 हज़ार करोड़ रुपये का घाटा. सामान्य दर्ज़े और उप-नगरीय सेवाओं की वजह से है. एक तरफ़ ये भारी घाटा और दूसरी तरफ़ सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशें सिर पर हैं. इसकी वजह से रेलवे पर 32 हज़ार करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ने का अनुमान है. इसीलिए ये माना जा रहा है कि इस बार रेल मंत्री सुरेश प्रभु के पास यात्री भाड़ा में भारी बढ़ोत्तरी करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. ये आलम तब है जबकि डीज़ल का भाव बहुत निचले स्तर पर है. देश में रेलवे ही डीज़ल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में भी सुरेश प्रभु, शिवसेना के कोटे से कैबिनेट मंत्री थे. हालाँकि, अब वो बीजेपी में हैं.

नवम्बर 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साफ़-सुथरी छवि वाले और चार्टड एकाउन्टेंट रहे सुरेश प्रभु को रेल मंत्रालय की क़मान ये सोचकर सौंपी थी कि वो रेलवे में चमत्कार करके दिखाएँगे. मोदी ने शिवसेना के विरोध के बावजूद सुरेश प्रभु को न सिर्फ़ बीजेपी में जगह दी, बल्कि राज्य सभा और सरकार में भी बेहद अहम मंत्रालय सौंपा. मोदी को यक़ीन था कि प्रभु की अगुवाई में देश के सबसे बड़े ट्रांसपोर्टर भारतीय रेल के दिन फिर जाएँगे. लेकिन प्रभु का प्रदर्शन उम्मीदों पर ख़रा नहीं उतरा.

पिछले बजट में प्रभु ने माल ढुलाई के लक्ष्य को 111 करोड़ टन से बढ़ाकर 119.5 करोड़ टन पर ले जाने का लक्ष्य रखा था. लेकिन दिसम्बर तक रेलवे 81.65 करोड़ टन माल की ही ढुलाई कर सका. जबकि पिछले साल इसी अवधि में 80.85 करोड़ टन माल की ढुलाई हुई थी. यानी प्रभु के नेतृत्व में महज़ एक फ़ीसदी का मामूली सा इज़ाफ़ा हुआ. जबकि प्रभु ने 7.7 फ़ीसदी वाला ज़बरदस्त विकास (Robust Growth) का लक्ष्य रखा था.

माल ढुलाई ही रेलवे का कमाऊ पूत है. इससे होने वाले मुनाफ़े से ही रेलवे उस घाटे की भरपायी करता है जो उसे रियायती सेवाओं को देने की वजह से होती है. रियायती सेवाएँ भी दो तरह की हैं. पहला, ग़रीब और कमज़ोर तबक़े से जुड़ा यात्री भाड़ा और दूसरा, आवश्यक वस्तुओं जैसे नमक, खाद वग़ैरह की ढुलाई पर लागू रियायती माला भाड़ा तथा 53 क़िस्म की विशेष यात्री रियायतें यानी Concessions. पिछले साल रेलवे ने 1423 करोड़ रुपये के ऐसे Concessions दिये थे. जबकि फल-सब्ज़ी जैसी आवश्यक वस्तुओं की रियायती ढुलाई से उसे 53 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था. उप-नगरीय रेल सेवाओं से 4 हज़ार करोड़ रुपये और सामान्य दर्ज़े के मुसाफ़िरों से अभी क़रीब 18 हज़ार करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है. इस तरह, रेलवे को सरकारी ट्राँसपोर्टर होने के नाते जो जन सेवा दायित्व (Public Service Obligation) निभाने पड़ते हैं, उनकी वजह से उसे 32 हज़ार करोड़ रुपये का घाटा होता है.

रेल मंत्री सुरेश प्रभु चाहते हैं कि वित्त मंत्री अरूण जेटली इस घाटे की भरपायी में सहयोग दें. लेकिन जेटली का कहना है कि जन सेवा दायित्व की कोई सरकारी परिभाषा तय नहीं है. लिहाज़ा, पहले इसे किसी स्वतंत्र संस्था से परिभाषित करवाना चाहिए. सुरेश प्रभु इसके लिए राज़ी हैं. लेकिन प्रभु का कहना है कि इस काम को सम्बन्धित मंत्रालयों (Inter Ministerial) की समिति से करवाया जा सकता है, जो ये भी तय करे कि ऐसी रियायती सेवाओं से रेलवे को कितने राजस्व का नुक़सान होता है? बात यहीं अटकी है.

रेलवे की सबसे बड़ी समस्या उसके संचालन व्यय (Operating Ratio) को लेकर है. पिछले साल ये 91.8 फ़ीसदी था. जबकि अक्टूबर 2015 में ये 97% पर था. इसका मतलब है कि रेलवे सौ रुपये का राजस्व कमाने में 97 रुपये ख़र्च कर रहा है. ये प्रदर्शन बहुत ख़राब है. क्योंकि ख़ुद सुरेश प्रभु ने पिछले रेल बजट में इसे 88.5% पर पहुँचाने का लक्ष्य रखा था. तो क्या ये नहीं माना जाना चाहिए कि सुरेश प्रभु ने अपने रेल बजट में ख़्याली पोलाव पकाया था. संचालन व्यय का नाता रेलवे के उन अफ़सरों और कर्मचारियों से है, जो रेलवे के मौजूदा तंत्र को चला रहे हैं. इनकी एक ही दलील होती है कि रेलवे के सस्ता होने और लागत के लगातार बढ़ते रहने की वजह से मुनाफ़ा नहीं हो रहा है. लिहाज़ा, मुनाफ़ा चाहिए तो किराया बढ़ाइए.

भारतीय रेल का माल भाड़ा दुनिया की सबसे महँगा है. लिहाज़ा, बजट में अधिक राजस्व जुटाने के लिए यदि इसे ही और महँगा किया गया तो उससे रेलवे पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. दूसरी तरफ़, सामान्य दर्ज़े और उप-नगरीय सेवाओं पर लागू भाड़ा देखते ही देखते बहुत ज़्यादा रियायती हो चुका है. मसलन, दिल्ली से चंडीगढ़ की 266 किलोमीटर की दूरी के लिए बस का किराया जहाँ 350 रुपये है, वहीं सामान्य दर्ज़े के लिए रेल किराया सिर्फ़ 95 रुपये है. इसी तरह, दिल्ली-आगरा की दूरी है 194 किलोमीटर. सामान्य दर्ज़े का रेल किराया है 85 रुपये. जबकि बस का किराया 280 रुपये. साफ़ है कि रेल मंत्री सुरेश प्रभु को इस वर्ग के मुसाफ़िरों से और पैसे जुटाने की सम्भावना दिख रही है.

प्रभु ने आरक्षण शुल्क और तत्काल सेवाओं को ख़ूब महँगा करके उसे यथासम्भव पहले ही निचोड़ लिया है. उच्च श्रेणी के यात्री भाड़े में ज़्यादा इज़ाफ़ा करने की गुंजाइश भी सुरेश प्रभु के पास नहीं है, क्योंकि ऐसा करते ही वो हवाई जहाज़ के किराये के क़रीब पहुँच जाएँगे. इससे उच्च श्रेणी के मुसाफ़िरों के घटने का संकट पैदा हो जाएगा. ज़ाहिर है, ये विकल्प अच्छा नहीं माना जा सकता.

यात्री सुविधाओं के विकास के लिए सुरेश प्रभु ने पिछले बजट में 1748 करोड़ रुपये का इन्तज़ाम किया था. लेकिन अभी तक इसमें से बमुश्किल 30% रक़म ख़र्च हो पायी है. साफ़ है कि 31 मार्च यानी मौजूदा वित्त वर्ष तक शायद आधी रक़म भी न ख़र्च हो पाये. यही हाल, प्रभु की चहेती ‘रेल पटरियों के दोहरीकरण’ की योजना है. इसके कुल बजट में से अभी तक सिर्फ़ 41% ही इस्तेमाल हो पाया है. अन्य पूँजीगत ख़र्चों (Capital Expenditure) के मोर्चे पर भी अभी तक 44% रक़म ही खर्च हो सकी है. आर्थिक क्रियाकलापों में पूँजीगत ख़र्चों का बहुत ज़्यादा महत्व है क्योंकि इसी से नयी परिसम्पत्तियों (Assets) का सृजन होता है. इसी से विकास नज़र आता है. इसी से पता चलता है कि रेलवे ने नये निर्माण के लिए जिन अफ़सरों और कर्मचारियों को नौकरी पर रखा है, उनका प्रदर्शन कैसा है?

मज़े की बात ये है कि सुरेश प्रभु ने पिछले बजट में एक लाख करोड़ रुपये की युगान्तरकारी योजना (Turnaround plan) बनायी थी. योजना का आकार ऐतिहासिक था. तब वित्त मंत्रालय ने रेलवे को 12 हज़ार करोड़ रुपये की बजटीय सहायता देने के वादा किया था. लेकिन जब दिसम्बर तक प्रभु सिर्फ़ 40 हज़ार करोड़ रुपये ही ख़र्च कर पाये तो वित्त मंत्रालय ने ये कहते हुए अपनी सहायता वापस ले ली कि रेलवे इसका इस्तेमाल नहीं कर पाएगा.

रेलवे ने निवेश जुटाने के लिए भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) के साथ भी एक क़रार किया था. इसमें LIC ने पाँच साल के लिए रेलवे को 1.5 लाख करोड़ रुपये मुहैया करवाने का वादा किया है. लेकिन रेलवे का पास तो अपने गुज़ारे के लिए पैसे नहीं जुट रहे, वो LIC से कर्ज़ लेकर महँगा ब्याज़ कैसे भरेगा. कुलमिलाकर, सुरेश प्रभु का रिपोर्ट कार्ड इतना तो बता ही रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें लेकर जो सब्ज़बाग़ देखे थे, उन पर पानी फिर चुका है.

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