अमित शाह चुनौतियाँ बड़ी हैं

Bhopal Samachar
राकेश दुबे@प्रतिदिन। और विकल्प हीनता ने अमित शाह को दूसरी पारी {फुल टर्म} का मौका दे दिया |अमित शाह पर आरोप है कि वे पार्टी में चंद लोगों पर ही सलाह के लिए निर्भर करते हैं|  जमीनी कार्यकर्ताओं की नहीं सुनते  और न ही वरिष्ठ नेताओं की सलाह पर अमल करते हैं|  यह सही है या गलत, लेकिन अगर पार्टी कार्यकताओं में यही धारणा बन गई है, और अमित शाह के सामने नई चुनौतियाँ  भी है | चुनाव के इस दौर में भाजपा की दृष्टि से बिहार जैसा कोई महत्त्वपूर्ण राज्य नहीं है| तमिलनाडु जैसे बड़े और महत्त्वपूर्ण राज्य में भाजपा तो केवल पांव जमाने का ही प्रयास कर रही है. यही हाल केरल का है, जहां भाजपा कई चुनाव से विधानसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश ही कर रही है|यही हाल पश्चिम बंगाल का है |  ये चुनौतियाँ भी छोटी नहीं बड़ी  हैं |

 असम में मुख्यमंत्री गोगोई सरकार के प्रति उकताहट  और  कांग्रेस भी आंतरिक कलह का लाभ भाजपा उठाना चाहती है. कुछ प्रभावशाली कांग्रेसी नेताओं के शामिल होने के कारण भाजपा को लगता है, वह कांग्रेस सरकार को हटा सकती है. लेकिन यह संभव तो है, लेकिन आसान नहीं; क्योंकि न तो भाजपा का जनाधार अभी उतना बड़ा है कि अपने बूते जीत दर्ज करे और न कांग्रेस इतनी कमजोर हो गई है कि मुकाबला न कर सके| भाजपा ने बोडो जनजाति के संगठन को अपने पाले में कर लिया है. इसका कुछ लाभ है और कुछ खतरे भी हैं|  अमित शाह की नई पारी में असम उनके लिए एक परीक्षा होगी, व्यक्तिगत रूप से भी और पार्टी के लिए भी| जरूरत है कि अबकी बार अमित शाह बूढ़े पार्टी नेताओं और जवान कार्यकर्ताओं के साथ बेहतर तालमेल स्थापित करें और कथित विशेषज्ञ सलाहकारों के अतिरिक्त सामान्य कार्यकर्ता के सहज विवेक पर भी कुछ भरोसा जताने की कोशिश करें|

मोदी सरकार की एक कमी की ओर अक्सर लोगों का ध्यान जाने लगा है |प्रधानमंत्री कुछ मंत्रियों को नजरअंदाज करते रहे हैं, शायद इसलिए कि वे कोटा मंत्री हैं. और कुछ पर अत्यधिक निर्भरता दिखाते रहे हैं. उनका कहना था कि व्यक्ति से महत्त्वपूर्ण पार्टी होती है और पार्टी से महत्त्वपूर्ण देश, लेकिन इस मान्यता को अपनी सरकार पर लागू करने की जरूरत है. भाजपा को भारी जन समर्थन मिला  और अमित शाह के कार्यकाल में पार्टी के सदस्यों की संख्या में भी काफी वृद्धि हुई है, लेकिन उसी अनुपात में पार्टी संगठन में वह अनुशासन और दिशा बोध नहीं आ पाया है, जो कभी जनसंघ और कुछ सालों तक भाजपा की भी विशेषता मानी जाती थी|

चुनाव के समय संघ के स्वयंसेवकों के सहारे चुनाव प्रचार का प्रबंधन तो होता है, लेकिन इस अस्थाई प्रबंध से पार्टी का अपना संगठन शायद ही बन पाएगा| अमित शाह को पहले कार्यकाल में कुछ कठिनाइयां इसलिए आई  होंगी कि उनका चेहरा और व्यक्तित्व हिंदी क्षेत्रों में जाना पहचाना नहीं था|इस अजनबीपन के कारण शायद कार्यकर्ता और नेता के बीच सहज निकटता नहीं बन पाई हो, लेकिन अब देश के हर क्षेत्र के कार्यकर्ता और जनता के साथ उनका आमना-सामना हो चुका है. इसलिए उम्मीद करनी चाहिए कि अबकी बार अपनी उस छवि को साबित करेंगे, जो उन्होंने लोक सभा चुनाव में बना ली थी|
  • श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। 
  • संपर्क  9425022703 
  • rakeshdubeyrsa@gmail.com

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