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एक नजर गंदा गांधी वापस जा
गांधीजी स्वदेश में कठिनाई से छह महीने ही बिता पाए थे। कि नैटाल से उन्हे अफ्रीका लौटने का तार मिला। अन्याय के विरुद्ध की जो आग सुलगा आए थे, वह धीरे धीरे प्रज्जवलित हो रही थी। उसे नियंत्रण में रखने के लिये सुलगाने बाले की आवश्यकता आ पडी थी।
सेठ अब्दुल्ला ने कुरलैंड नामक जहाज खरीदा था। उसी पर उन्हे गांधीजी को सपरिवार, बिना किराया दिए आने का आग्रह किया। गांधीजी ने सेठ के आग्रह को स्वीकार कर अपनी पत्नि और दो पुत्रो के साथ डर्बन की ओर प्रस्थान कर दिया। उनके साथ साथ दूसरा जहाज नादरी भी भारतीय कुलियो और व्यापारियो को लेकर नैटाल की ओर चला।
जैसे ही जहाज ने डर्बन बंदरगाह पर लंगर डाला। तभी उसी समय बंदरगाह पर गोरे बडी संख्या में इकटठे थे। और गंदा गांधी वापस जा के नारे लगा रहे थे, नैटाल के गोरो ने पहले गांधीजी को डर्बन में प्रविष्ट न होने देने का निश्चय कर लिया था। जब उन्होने दो जहाजो को डर्बन बंदरगाह पर देखा, तो उन्हे ऐसा लगा कि गांधी उनके खिलाफ आन्दोलन करने के लिये दो जहाजो मे कुली भर कर लाया है। उन्होने दोनो जहाजो के भारतीयो को तुरन्त लौट जाने का नारा लगाया। वे धमकाकर कहने लगे कि अगर किसी कुली ने उतरने की कोशिश की तो उसे समुद्र मे फेक दिया जायेगा। गांधीजी यात्रियो को शांत रहने का ढढास बॅधाते थे। उन्होने यह भी कहा कि यदि तुम्हे अपने प्राण प्यारे है, तो स्वदेश लौट सकते है। हो सकता है, उतरने पर मौत के मुॅह मे झोक दिया जाये।
सभी भारतीयो ने डर्बन बंदरगाह पर उतरने के अपने अधिकार को न त्यागने का निर्णय लिया। उन्होने गांधीजी से कहा कि हम गोरो की गीदड भभकियो से नही डरेगे। जहाज के बंदरगाह पर पहुॅचते ही डाक्टरो ने यात्रियो की जाॅच की। कोई यात्री बीमार नही था। फिर भी जहाज चूॅकि बंबई से आ रहा था। और वहाॅ प्लेग की बीमारी थी। इसीलिये यही बहाना लेकर जहाज को तेईस दिन तक बंदरगाह पर अलग रखा गया और भारतीयो को प्रवेश करने की अनुमति नही दी गई। डाक्टरी मत से प्लेग के कीटाणु तेईस दिन तक कायम रहते है।
यह आदेश आरोग्य की दृष्टि से नही लिया गया था, गोरो के बिरोध आन्दोलन के कारण लिया गया था। भारतीयो को वापस भगाने की यह एक चाल थी। डर्बन के गोरे बडी बडी सभाॅए कर रहे थे। सेठ अब्दुल्ला को धमकाया डराया जाता था। लालच भी दिया जाता था, परन्तु सेठ धमकियो से डरने वाले नही थे। तेईस दिन का निर्धारित समय बीत जाने पर डर्बन के भारतीय और उनके वकील मिस्टर लाटेन जहाज पर आए और भारतीयो को उतरने के लिये प्रोत्साहन देने लगे।
यात्री उतरने लगे, परन्तु गांधीजी को सरकार ने संध्या तक न उतरने की सलाह दी, क्योकि गोरे बहुत उग्र हो रहे थे। सरकार को उनके प्राणो का भय था। गांधीजी ने संध्या का उतरना स्वीकार कर लिया। परन्तु एडवोकेट मिस्टर लाटेन उन्हे अपनी जिम्मेदारी पर दिन में ही ले जाने को उद्यत हो गए। जहाज के कप्तान से बिदा लेकर गांधीजी मिस्टर लाटेन के साथ अपने मित्र रुस्तमजी के मकान की ओर चलने लगे। गोरे लडको ने उन्हे पहचानकर गांधी गांधी की आवाज लगाई। गोरो की भी जमा हो गई। मिस्टर लाटेन ने बैठने के लिये जो रिक्शा मॅगाया था, उसे लडको ने भगा दिया। गांधीजी भीड में फॅस गये। लाटेन उनसे अलग हो गए गांधीजी ने जहाज से रवाना होने के पूर्व अपनी पत्नि तथा पुत्रो को रुस्तम की गाडी में सकुशल पहुॅचा दिया था।
जब गांधीजी भीड में घिर गये, तब उन पर पत्थर और सडे गले अण्डे बरसने लगे। किसी ने उनकी पगडी छीनी किसी ने लाते मारी किसी ने कोडे मारे और किसी ने घॅसे मारे और मुॅक्के मारे गांधीजी ने किसी पर हाथ नही उठाया। वे बेसुध होकर गिरने ही बाले थे। कि इतने में पुलिस सुपरिटेंडेंट अलेक्जैंडर की पत्नि उनके पास पहुॅच गई। और उनके सिर पर छाता तानकर खडी हो गई, इसी समय पुलिस की एक टुकडी उनकी रक्षा के लिये आ गई। पुलिस सुपरिटेंडेंट ने उन्हे पुलिस थाने में ठहरने को कहा, परन्तु गांधीजी ने ठहरने से इंकार कर दिया। उन्हे जनता की बुद्धि पर विश्वास था। उन्होने कहा जब भी उन्हे गलती समझ में आएगी, वे अपने कृत्य के लिये स्वयं लज्जित होगे।
उनकी इच्छानुसार पुलिस ने उन्हे रुस्तमजी के घर पहुॅचा दिया। वहाॅ भी गोरे की भीड जमा थी। गांधी कहाॅ है, उसको निकालो की आवाज सुनाई देने लगी। तब पुलिस ने गांधीजी को समझाया कि आप मित्र के मकान से छद्म वेष में निकल जाए, अन्यथा भीड मकान को जला देगी। मित्र के मकान की ऱक्षा को ध्यान में रखकर गांधीजी पुलिस कांस्टेबल के वेश में छिपकर निकल गए दो जासूस भी उनके साथ हो लिए।
जब तक गांधीजी सुरक्षित स्थान तक पहुॅच नही गये। तब तक पुलिस सुपरिटेंडेंट भीड को नियंत्रित करते रहे। अंत मे उसने मकान की तलासी का अभिनय किया और बाहर आकर भीड से कहा कि तुम्हारा तो शिकार निकल गया। जब भीड को यह विश्वास हो गया। कि काला बैरिस्टर वहाॅ नही है। तब हो हो हो करती हुई। तितर बितर हो गई, पुलिस उपद्रवियो पर मुकदमा चलाना चाहती थी। परन्तु गांधीजी राजी नही हुये।
समाचार पत्रो ने गोरो की असभ्यता और उदडता की कडी आलोचना की। डर्बन के बहुत से गोरे लज्जित हुएॅ क्योकि जिन कारणो से वे गांधीजी से क्रुद्ध थे, उनके लिये वे बिल्कुल जिम्मेदार नही थे।
गांधीजी ने दिसम्बर 1902 में तीसरी बार नैटाल की ओर प्रस्थान किया।
गांधीजी ने 18 जुलाई 1914 को अफ्रीका से साश्रु अन्तिम बिदा ली
गांधजी को 4 फरवरी 1932 को पुनः यरवदा जेल में डाल दिया गया।
कस्तूरबा ने गांधीजी की गोद मे 22 फरवरी 1944 में अन्तिम साॅस ली।