राकेश दुबे@प्रतिदिन। इस बात से कोई भी असहमत नहीं होगा कि विश्वविद्यालयों में राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती। जेएनयु के मामले में भी ऐसा ही ही है | अभी तक मिली जानकारी दो प्रकार की है एक राष्ट्र विरोधी नारे लगे दूसरी वहां कुछ बाहर के लोग भी थे | राष्ट्र-विरोधी नारेबाजी के पीछे जेएनयू के बाहर के लोगों का भी हाथ था, जैसा कि बताया जा रहा है, तो यह वाकई गंभीर है। लेकिन हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद जेएनयू का घटनाक्रम यह भी बताता है कि केंद्र की सत्ता में भाजपा के आने के बाद एबीवीपी की सक्रियता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है, जेएनयू मामले में भी यही देखा जा रहा है। देश विरोधी नारे लगाए हैं, तो उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी चाहिए। हैदराबाद में भी एबीवीपी के छात्रों ने दिल्ली स्थित वरिष्ठ भाजपा नेताओं से शिकायतें की थीं, जिनके जवाब में उन नेताओं ने विश्वविद्यालय प्रशासन को संबंधित छात्रों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का निर्देश दिया था।
अगर हैदराबाद विश्वविद्यालय में एबीवीपी से जुड़े छात्रों को कुछ मुद्दों पर शिकायत थी, तो उनके समाधान के लोकतांत्रिक तरीके निकाले जा सकते थे। पर उसके बजाय केंद्रीय सत्ता से शिकायत की गई, जिसके जवाब में विश्वविद्यालय प्रशासन पर दबाव बनाया गया। गौरतलब है कि एबीवीपी एक बहुत पुराना छात्र संगठन है, जिसका गठन वर्ष 1949 में हुआ था | यह बेहद प्रभावशाली छात्र संगठनों में से है। वस्तुतः शिक्षा परिसरों में राजनीतिक लड़ाइयां खुद ही लड़ी जाती हैं, लेकिन भाजपा के केंद्र की सत्ता में आने के बाद यह उसकी मदद से मजबूत होना चाहता है। बेशक ऐसा सिर्फ एबीवीपी के साथ ही नहीं है, छात्र राजनीति अब सत्ता राजनीति का ही विस्तार हो चुकी है। पर यह भी सच है कि खुली विचारधारा का विरोधी होने के कारण जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में पूरी तरह वर्चस्व हासिल करना एबीवीपी के लिए अब तक कठिन रहा है। बेहतर होता कि जेएनयू में पैठ बना चुकने के बाद एबीवीपी अपने दम पर आगे बढ़ती।
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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