
भारत में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है और भारतीय नौकरशाही भ्रष्टाचार व लालफीताशाही के लिए पूरी दुनिया में कुख्यात है। जब भारत में निवेश की बात आती है, तो अक्सर विदेशी निवेशक लालफीताशाही या भ्रष्टाचार को अपनी हिचक की एक बड़ी वजह बताते हैं। पिछले कई बरसों से ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं के आकलन में भी भारत में भ्रष्टाचार कमोबेश एक जैसा ही है। इस साल ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के आकलन में भारत की स्थिति हल्की-सी बेहतर हुई है, क्योंकि पिछले साल बड़े घोटालों की ज्यादा खबरें नहीं आईं। अगर हाईकोर्ट के ईमानदार न्यायाधीश भी भ्रष्टाचार से इतने आजीज आ चुके हैं कि वे अब लोगों से अपील कर रहे हैं कि वे मिलकर भ्रष्टाचार से लड़ें, तो यह टिप्पणी बताती है कि पानी सिर के कितने ऊपर आ गया है।
हालांकि यह न्यायाधीश की सुनवाई के दौरान की गई टिप्पणी है, जिसे न्यायालय का आदेश नहीं माना जा सकता लेकिन इससे पता चलता है कि सरकारी तंत्र में प्रभावशाली पद पर मौजूद व्यक्ति भी भ्रष्टाचार के जाल के सामने अपने को कितना अकेला पाता है? भ्रष्टाचार के साथ कार्य-कुशलता और मनोबल की गिरावट भी जुड़ी हुई है, इसलिए सरकारी तंत्र अपने कर्तव्य नहीं निभाता और हम न्यायपालिका की अति-सक्रियता की घटनाएं देख रहे हैं, जिसमें अदालत, कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र के फैसले देती है। एक तरफ, विधायिका और दूसरी तरफ से न्यायपालिका, कार्यपालिका के क्षेत्र का अतिक्रमण कर रही है। इससे कुछ मामलों में जरूर राहत मिलती है, मगर लोकतंत्र के स्तंभों में असंतुलन अच्छी बात नहीं है।