रचना पाटीदार। आज महिलाएं उसी देवता और धर्म के सामने समानता का अधिकार जता रही है जिसने उसे सदियो से असमानता के दलदल में धकेल रखा है। हम बात कर रहे है महाराष्ट्र के शिंगणापुर के शनि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर चल रहे आन्दोलन के बारे में। इस संदर्भ में धर्म ,राज्य और महिला अधिकार का जो त्रिकोण सामाने आया उसमें परस्पर द्वंद्व की स्थिति देखने को मिलती है किन्तु इस द्वंद्व में संवैधानिक मूल्य गुम होते नजर आ रहे है। पिछले दिनो भू माता बिग्रेट द्वारा शनि मंदिर में प्रवेश को लेकर चलाये गए आन्दोलन के इर्द गिर्द कई सवाल खडे हुए है, किन्तु इसमें अहम सवाल राज्य के दायित्व का है।
भारत की लोकतान्त्रिक एवं कल्याणकारी शासन व्यवस्था में संवैधानिक मूल्यो को लागू करना राज्य की जिम्मेदारी मानी गई है। यानि राज्य और संविधान के रास्ते से ही महिलाओं केा समानता का अधिकार हासिल होगा। किन्तु ऐसा लगता है कि शनि शिंगणापुर के मामले में राज्य अपने इस दायित्व को निभाने में सफल नही रहा। क्योकि किसी भी धर्म स्थल में किसी भी व्यक्ति के प्रवेश के अधिकार की रक्षा करते हुए राज्य ने महिलाओं के मंदिर में प्रवेश की व्यवस्था की और न ही कोई फैसला लिया।
भारत के संविधान में जाति, जेण्डर और अमीरी-गरीबी के आधार पर भेदभाव को नकारा गया है यानि यहां सभी व्यक्तियों केा समानता का अधिकार हासिल है । जबकि धर्म कई तरह के भेद भाव को समाहित किये हुए हैं। इस तरह संवैधनिक मूल्य और पारम्परिक मूल्यो के बीच घोर विरोधाभास कायम है। इस संदर्भ में राज्य का दायित्व है कि वह संविधान के पक्ष में खड़े होकर नागरिकों के समानता के अधिकार की रक्षा करें। यघपि राज्य ने कई अवसरो पर समानता के अधिकार के पक्ष में सक्रिय कदम उठाते हुए अपनी प्रतिबद्वता जाहिर की । ‘‘ अनुसुचित जाति एवं जनजाति ( अत्याचार विरोधी ) अधिनियम 1989 को लागू करना राज्य की इसी प्रतिबद्वता को दर्शाताहै जिसके अंर्तगत किसी भी दलित व्यक्ति को मंदिर प्रवेश में रोकने पर कठोर कार्यवाही का प्रावधान है किन्तु महिलाओं के मामले में ऐसा कोई विशेष कानून अस्तित्व में नही है।
धर्म स्थल पर महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी सिफ शनि शिंगणापुर में ही नही बल्कि कई और स्थानो पर भी है। भारत का सबसे अमीर माना जाने वाला केरल के पद्यनाभस्वामी मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। इसी तरह केरल के ही सबरीमाला अयप्पा मंदिर में दस से पचास वर्ष की महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है। उत्तर भारत का राजस्थान और मध्यप्रदेश् के धार्मिक स्थल भी इससे मुक्त नहीं है। राजस्थान के पुष्कर में स्थित कार्तिकेय मंदिर में महिलाओ का प्रवेश वर्जित है, वहीं मध्यप्रदेश के गुना के मुक्तागिरी मंदिर में महिलाएं सिर्फ पारम्परिक पोषक में ही प्रवेश कर सकती है। दक्षिण दिल्ली में स्थित हजरत निजामुदिदन ओलिया की दरगाह में भी महिलाओं को प्रवेश का अधिकार नही है। दिल्ली की जामा मस्जिद में सूर्य अस्त के बाद महिलाएं प्रवेश नही कर सकती है।
धर्म के मामले में तथाकथित प्रगतिशीलता का आलम यह है कि कई लोग महिला अधिकार की बात करते हुए महिलाओं को पुजारी बनाने के उदाहरण पेश करते हैं, किन्तु आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा के भवानी दीक्षा मंदिर में महिला पुजारी तो है लेकिन उस पुजारी को ही मंदिर के अंदर प्रवेश की अनुमति नही है।
यह स्पष्ट है कि धर्म में जाति, जेण्डर सहित विभिन्न आधारों पर भेदभाव कायम है, जो कि हमारे संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है। उपरोक्त संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल महिलाओं के समानता के अधिकार को लेकर है। सिर्फ धर्मस्थल ही नहीं, बल्कि शिक्षा तथा विकास के विभिन्न अवसरों से भी महिलाओं को बाहर रखने की परंपरा हमारे समाज में कायम है। इस दशा में महिलाओं को समानता का अधिकार किसी भाषण मात्र से संभव नहीं, बल्कि उसके लिए ठोस कानून की जरूरत है। क्योकि हमारे देश में महिला होने के नाते किसी व्यक्ति को किसी अवसर से वंचित करने पर दण्डात्मक कार्यवाही के लिए कोई विशेष कानून मौजूद नहीं है। चाहे धर्म स्थल हो या कोई अवसर, लैंगिक आधार पर महिलाओं को उससे वंचित करने पर कठोर कार्यवाही का प्रावधान जरूरी है और इसके लिए भारत की संसद को कानून बनाकर सजगता दिखानी होगी।
रचना पाटीदार
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