नई दिल्ली। ऐसा पहली बार नहीं है जब राष्ट्रद्रोह का कानून विवाद का विषय बना है। ब्रिटिश सरकार के द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के एक टूल के रूप में इसे बनाया गया था। मगर, इसका इस्तेमाल आजादी के बाद भी होता रहा है।
असंतोष को दबाने का आसान टूल है राष्ट्रद्रोह कानून
उपनिवेशवाद विरोधी भावना का मुकाबला करने के लिए 1870 में इस अत्याचारी कानून को लागू किया गया था। महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक सहित कई लोगों पर इस कानून के तहत मुकदमा चलाया गया।
नेहरू खत्म करना चाहते थे
भारत की आजादी के बाद साल 1951 में देश के पहले प्रधानमंत्री बने जवाहर लाल नेहरू इस दमनकारी कानून को खत्म करना चाहते थे। उन्होंने संसद में कहा था- यह विशेष खंड बेहद आपत्तिजनक और अप्रिय है व इसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए... कानून के किसी भाग में... जल्द ही हमें इससे छुटकारा पा लेना चाहिए।
सुप्रीमकोर्ट ने ऐसे की व्याख्या
वर्ष 1962 में सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने केदार नाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में फैसला दिया असंतोष फैलाने को देशद्रोह नहीं माना जाएगा, जब तक कि आरोपी हिंसा भड़काने में शामिल नहीं है।
कानून अन्यथा संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देगा।