
जेएनयू हमेशा से तरह-तरह की वामपंथी धाराओं का केंद्र रहा है, बल्कि वह एक तरह से इन विचारों का संग्रहालय है। ऐसा इसलिए कि जेएनयू की सीमा के ठीक बाहर उसके विचारों का असर नहीं है, न देश की व्यापक वामपंथी राजनीति में उसकी कोई बड़ी भूमिका है। लेकिन अकादमिक स्तर पर जेएनयू की अच्छी-खासी प्रतिष्ठा है और वह बरकरार रहनी चाहिए। इस संस्थान पर या इसके छात्रों के हित पर आंच नहीं आने देना चाहिए। वामपंथियों को भी यह समझना होगा कि किसी लोकतांत्रिक देश में इतना बड़ा विश्वविद्यालय कैसे किसी एक विचारधारा से जुड़ा रह सकता है। जरूरी यह है कि दोनों पक्ष अपनी उग्रता कम करें और तार्किक संवाद करें, वरना इस झगड़े में जेएनयू का और छात्रों का दीर्घकालिक नुकसान होगा। लोकतंत्र में तरह-तरह के विचार होते हैं और उनमें से कुछ ज्यादा उग्र भी होते हैं, लेकिन लोकतंत्र की ताकत ही यह है कि वह उग्र विचारों को भी बर्दाश्त करता है और धीरे-धीरे उनकी उग्रता और धार कम कर देता है।
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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