सामान्य ज्ञान भाग 20 (भारत का विभाजन)

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भारत का विभाजन एक नजर 
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय काँग्रेस ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग को तत्पर थी परन्तु काँग्रेस चाहती थी कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल स्वराज्य देने सम्बन्धी एटलाटिंक चार्टर की घोषणा को भारत पर भी लागू करें। चर्चिल ऐसी घोषणा को तैयार नहीं थे अतः दोनों पक्षों के मध्य गतिरोध उत्पन्न हुआ। 

युद्ध के मोर्चों पर अंग्रेजों की स्थिति अच्छी नहीं थी। दक्षिण-पूर्वी एशिया में जापान की स्थिति द्रढ़ हो रही थी। ऐसी स्थिति में चर्चिल युद्ध कार्य में भारतीयों का सहयोग चाहता था। इन स्थितियों में चर्चिल ने सर स्टेफर्ड क्रिप्स को भारत भेजने की घोषणा की।

क्रिप्स प्रस्ताव: 
द्वितीय विश्वयुद्ध में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने की अच्छा, युद्ध के मोर्चों पर मित्रराष्ट्रों की स्थिति खराब होना तथा विश्व जनमत के दबाव के कारण ब्रिटिश सरकार ने क्रिप्स को भारत भेजा। क्रिप्स ने 22 मार्च 1942 को भारत पहुँचकर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श किया। भारत के वैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए क्रिप्स अपने साथ निश्चित प्रस्ताव लाया था। यह प्रस्ताव दो भागाों में थे - युद्ध के समय लागू होने वाले तथा युद्ध के बाद लागू होने वाले प्रस्ताव।

क्रिप्स के प्रस्ताव काँग्रेस को सन्तुष्ट नहीं कर सके क्योंकि इसमें युद्ध के बाद औपनिवेशिक स्वराज्य देने की बात कही गयी थी जबकि काँग्रेस की मांग पूर्ण स्वराज्य की थी। लीग इसलिए असन्तुष्ट थी क्योंकि इसमें उनकी पाकिस्तान की मांग को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं किया गया था। काँग्रेस एवं लीग के अतिरिक्त सिखों, हिन्दू महासभा, दलितों तथा अन्य ने भी प्रस्तावों से असहमति जताई। 

लार्ड बाॅवेल अक्टूबर 1943 में गवर्नर जनरल बनकर भारत आए। बावेल भारत के वैधानिक गतिरोध  को हल करना चाहता था। उसने जो योजना प्रस्तुत की उससे यह स्पष्ट आभास हुआ कि ब्रिटिस सरकार भारत के राजनीतिक गतिरोध को दूर करके स्वशासन के लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहती है। 

बावेल ने योजना प्रस्तुत की उस पर विचार करने के लिए भारतीय नेताओं का एक सम्मेलन शिमला में बुलाया गया। 25 जून 1945 को शिमला सम्मेलन आरम्भ हुआ। सम्मेलन में तय हुआ कि केन्द्रीय मंत्रीमण्डल मिला जुला होगा तथा उसमें 14 मंत्री होंगे। इसमें 5 काँग्रेस, 5 लीग तथा 4 वायसराय  द्वारा मनोनीत होंगे। वायसराय ने काँग्रेस तथा लीग को 8 से 12 नाम देने को कहा। काँग्रेस ने जो सूची वायसराय को भेजी, उसमें दो सदस्य मुस्लिम थे। परन्तु जिन्ना चाहते थे कि मुस्लिम प्रतिनिधि लीग के सदस्योें में ही लिये जायें। इसका कारण यह था कि जिन्ना काँग्रेस को हिन्दू संस्था सिद्ध करके, लीग को भारतीय मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था होेने का दावा करना था। 

लीग के असहयोग केे कारण शिमला सम्मेलन असफल हुआ। जिन्ना के हठ एवं दुराग्रह के समक्ष बावेल ने हथियार डाल दिए। इस प्रकार से भारत के भाग्य का निर्णय करने के सम्बन्ध में उसे वीटो का अधिकार देकर सरकार ने एक बार पुनः फूट डालो और राज्य करो की नीति का अनुसरण किया।

कैबिनेट मिशन: 
शिमला सम्मेलन की असफलता के बाद इंग्लैण्ड की नयी मजदूर दल की सरकार ने भारत की स्थिति को ठीक से जानकारी लेने के लिएॅ एक शिष्टमंण्डल भारत भेजा। ब्रिटिश संसदीय शिष्टमंण्डल ने अपनी रिपोर्ट में भारत में सत्ता को तुरन्त हस्तांन्तरित किये जाने की अनुशंसा की। इस स्थिति में ब्रिटिश प्रधानमंत्री  लार्ड एटली ने कैबिनेट मिशन भारत भेजा। कैबिनेट मिशन भारत के भावी स्वरुप को निश्चित करने वाली एक योजना 16 मई 1946 को प्रस्तुत की। योजना के दो मुख्य भाग थे। अन्तरिम सरकार की स्थापना की तात्कालिक योजना तथा संबिधान निर्माण की दीर्घकालीन योजना।

6 अगस्त 1946 को वायसराय ने काग्रेस अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरु को अन्तरिम सरकार के निर्माण में सहयोग के लिये अनुरोध किया। इस बीच लीग ने पाकिस्तान की मांग का दबाव बढाने के लिये। 16 अगस्त 1946 को सीधी कार्यबाही का निश्चय किया। लीग और जिन्ना की हठधर्मिता के कारण देश भर में साम्प्रादायिक दंगे हुएॅ।

2 सितम्बर 1946 को जबाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार ने शपथ ली। सरकार को सुचारु रुप से कार्य करते देख लीग ने सरकारी कार्यो में अवरोध डालने की नियत अन्तरिम सरकार में स्वीकार किया। इससे वाताबरण खराब हुआ। सरकार ने दोनो पक्षो में समझौता कराने के प्रयास किये। परन्तु लीग की दबाव नीति के कारण  समझौता नही हो सका। इन्ही परिस्थतियो में 20 फरवरी 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने भारत छोडने की घोषणा की।

23 मार्च 1947 को लार्ड बावेल के स्थान पर लार्ड माउण्टबेटन नया गवर्नर जनरल बनकर आया। ब्रिटिश सरकार ने उन्हे पूर्ण अधिकार देकर भारत भेजा था, जिससे वे कैबिनेट के अनुसार गठित संबिधान सभा के माध्यम से भारतीयो को शासन सत्ता सौप सके।

काग्रेस के नेता विभाजन नही चाहते थे परन्तु लीग विभाजन के अलावा और कोई बात करने को तैयार नही थी अततः साम्प्रदायिक पागलपन के ज्वार के समक्ष विवश होकर काॅग्रेस को भारत विभाजन की सहमति देनी पडी। 

अन्तरिम सरकार की अपंगता, साम्प्रदायिक हिंसा का ज्वार, मुस्लिम लीग की हठधर्मिता, काँग्रेस नेताओ की विवशता तथा ब्रिटिश कूटनीति के परिणामस्वरूप भारत का विभाजन हुआ।
माउण्टबेटन ने जो योजना प्रस्तुत की उसके अनुसार भारत को दो भागों भारत तथा पाकिस्तान में विभाजित किये जाने तथा सता का हस्तान्तरण 15 अगस्त 1947 को करने सम्बन्धी प्रावधान किया गया। योजना में पंजाब बंगााल, सिंध, असम, बलुचिस्तान के विषय में स्पष्ट नीति निर्धारित की गयी। 

माउण्टबेटन की योजना को काँग्रेस ने स्वीकृति प्रदान की। मुस्लिम लीग समस्त बंगाल, असम, पंजाब, उतर पश्चिम सीमा प्रान्त तथा बलुचिस्तान को पाकिस्तान में मिलाना चाहती थी परन्तु माउण्टबेटन के दबाब के आगे उसे योजना को स्वीकार करना पडा। 

भाारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम-1947: 
माउण्टबेटन की योजनानुसार अंग्रेज सरकार ने हस्तान्तरण की कार्यवाही को पूर्ण करने के लिए भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम का प्रारूप तैयार किया। प्रारूप को काँग्रेस और लीग के अनुमोदन के लिए भेजा गया। अनुमोदन प्राप्त करने के पश्चात विधेयक को ब्रिटिश संसद ने पारित किया। 18 जुलाई 1947 को इसने अधिनियम का रूप लिया।

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