अनिल नेमा। ‘‘बीहड़ में बागी रहते है,डाकू तो संसद में होते है’’ पानसिहं तोमर फिल्म का यह डायलाग सुना था पर अब तो रियल लाइफ में एक से एक नये डायलाग सुनाई पड़ रहे है।
‘‘ जे.एन.यू.में राष्ट्रदोही पढ़ते है..... सरकारी स्कूल नक्सलवाद को जन्म देते है ... आदि..आदि....
नक्सलवाद को हम नहीं जानते पर यदि शोषणऔर भ्रष्टाचार में लिप्त हमारी पतित व्यवस्थाओं के विरोधस्वरूप उत्पन्न विद्रोहपूर्ण विचारधारा नक्सलवाद का पर्याय है, तो श्री श्री के कथन पर सोचना लाजमी है।
क्या सरकारी स्कूलों मे पढ़ने वाले विद्यार्थी ये सोचते है कि उसके पालक गरीब है, मजदूर है, किसान है, अभावग्रस्त है, आर्थिक अभाव के चलते प्रतिभावान होने के बाबजूद भी वे जर्जर भवन, शिक्षक विहीन सरकारी स्कूलों में अध्ययन करने के लिये विवश है।
सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को कमी, गुणवत्ताविहीन शिक्षण और गैर शिक्षकीय कार्य में शिक्षकों की संलग्नता के कारण जब स्कूल में विद्यार्थी खाली बैठता है तो निश्चित रूप से उसके दिमाग में कही न कही व्यवस्थाओं के प्रति विद्रोहपूर्ण विचारधारा का जन्म अवश्य होता होगा। वह अपने आप को ठगा हुआ महसूस करता होगा परन्तु यह अव्यवस्था का जन्मदाता कौन है...
कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार की रूचि व्यवस्था को बनाये रखने के स्थान पर विद्रोह को जन्म देने की है। दरअसल सरकार की व्यवस्थायें आंकड़ों पर चल रही है और आंकड़े कागज पर होते है । इसी कारण विद्रोह का जन्म होता है जिसे आप...
तो क्या इस अव्यवस्था,इस विद्रोह को सुधारने की जरूरत नहीं है...
गौरतलब है कि देशभर में तकरबीन 1.3 मिलियन सरकारी स्कूल है और आंकडे की गवाही ये है कि देशभर के 71 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते है। 2013 के आंकड़ो के अनुसार देश में 22.9 करोड़ बच्चे सरकारी स्कूलों में अध्ययन कर रहे है। श्रीश्री के कथन को यदि हम सही मानें तो क्या देश की युवा पीढ़ी नक्सलवाद की ओर अग्रसर है... तो हम क्या समझे देश में 25 करोड़ नक्सली तैयार हो रहे है ...
या फिर अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और सरकार की ‘‘सरकारी स्कूलों विरोधी नीति’’ के चश्में से श्रीश्री का ये बयान है कि ‘सरकारी स्कूल नक्सलवाद को बढ़ा रहे है’ । उच्च शिक्षा पर नेता और उद्योगपति तो पहले से ही काबिज हो गये है । अब सरकार की मंशा सरकारी स्कूलों को पी.पी.पी.मोड में कर बाबाओं और उद्योगपतियों को प्राइमरी से लेकर हायरसेकण्डरी व्यवस्था को सौपना है और ‘‘शिक्षा,स्वास्थ्य,और सुरक्षा’’ के दायित्व के निर्वहन से बचना है क्योंकि शिक्षा से तो सरकार को आमदानी होती नही बल्कि 69704 करोड़ रूप का बजट खर्च होता है। लगता है शिक्षा को पी.पी.पी. मोड में कर सरकार को इसके दुगने बजट की आमदानी दिखाई दे रही है।
अनिल नेमा