
इस वर्ण-व्यवस्था के कई गुपचुप समर्थ भी हैं है, भावनाएं जुड़ी हुई हैं, इसलिए किसी को इस पर आपत्ति नहीं होती,वोट बैंक बचा रहे इस कारण बोलने से परहेज बरता जाता है । गांधी की रामराज्य-परिकल्पना में भी उस जाति-व्यवस्था को ही समर्थन मिलता है, यह बात अलग है कि दलितों को वे ‘हरिजन’ नाम देकर उनके प्रति अपनी संवेदनशीलता भी प्रकट करते हैं। सवाल यह है कि अगर सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं तो फिर इस तरह का जातिगत-अलगाव क्यों, और इस दिशा या इसके विपरीत कोई स्पष्ट नीति क्यों नहीं ?!
निम्न कही जाने वाली जाति भी अपने नीचे कही जाने वाली कोई न कोई जाति खोज कर खुद को उच्च दिखाने का उपक्रम करती है। यह भावना जब तक है, तब तक इस ‘नासूर’ को भरने में मुश्किलें आती रहेंगी। शिक्षा का हथियार भी इस जड़ता को काटने में अपने आपको भोथरा महसूस करता है। शिक्षित व्यक्ति भी ‘प्रेम-विवाह’ के संबंध में अपनी बेटी या बेटा का विवाह निम्न कही जाने वाली जाति में करने से हिचकता है। हालांकि शहरों की तस्वीर सिर्फ दिखने में ही इन जड़ताओं से मुक्त लगता है, लेकिन वास्तविक स्थिति कुछ और है। ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति और भयंकर है। एक शिक्षित व्यक्ति अगर चाहे तो भी जातिगत बंधनों से बाहर नहीं जा सकता। सामाजिक दबाव उसे ऐसा करने से रोकते हैं। हजारों साल पुरानी इस व्यवस्था को तोड़ने में और कितने साल लगेंगे! अब इस सवाल पर हमें सोचना ही होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com