
शुरू में पार्टी ने इसकी तनिक परवाह न की हो, पर अब लगता है कि उसे इसकी थोड़ी-बहुत चिंता सता रही है। लिहाजा, प्रधानमंत्री समेत पार्टी के कई नेताओं को यह कहने की जरूरत महसूस हुई कि राष्ट्रवाद और लोकतंत्र का सह-अस्तित्व हो सकता है। यह विडंबना ही है कि जिस समय पार्टी जोर-शोर से राष्ट्रवाद का राग अलाप रही है, पंजाब तथा हरियाणा के झगड़े को सुलझाने में उसे पसीना आ रहा है, जबकि वह केंद्र में भी सत्ता में है और इन दोनों राज्यों में भी। पार्टी की एक चिंता यह भी नजर आती है कि दलितों में उसकी पैठ कैसे बढ़े। लोकसभा चुनाव में रामदास अठावले, रामविलास पासवान और उदित राज जैसे चेहरों ने पार्टी की एक परंपरागत कमी पूरी की थी। लेकिन दलितों के बीच आधार बढ़ाने की भाजपा की कोशिशों को हाल में रोहित वेमुला प्रकरण से गहरा झटका लगा है। इस नुकसान की भरपाई में वह जुट गई है, जिसके संकेत प्रधानमंत्री के हाथों आंबेडकर नेशनल मेमोरियल के शिलान्यास हैं। पर क्या इस तरह के प्रतीकात्मक काम पर्याप्त होंगे?
अटलजी के प्रधानमंत्रित्व-काल के प्रथम दो साल में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की छह बैठकें हुई थीं, जबकि इस दो साल के कार्यकाल में केवल तीन बैठकें हुई हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि तब की तुलना में पार्टी में आपसी संवाद कम हुआ है? वैसा हुआ हो या नहीं, नेताओं और मंत्रियों की गैर-जरूरी और कई बार आपत्तिजनक बयानबाजी जरूर बढ़ी है। इससे सरकार की छवि पर नकारात्मक असर पड़ता है। भाजपा को मिली ऐतिहासिक जीत के पीछे पार्टी और मोदी से बांधी गई उम्मीदें थीं। इसलिए मोदी ने यह दोहराना जरूरी समझा कि उनकी सरकार का एजेंडा विकास और सिर्फ विकास उन्होंने कार्यकर्ताओं से अपील की कि वे इसे हमेशा याद रखें, पर क्या व्यवहार में ऐसा होता है? जब कई वरिष्ठ लोग खुद ध्यान बंटाने वाली बातों में लग जाते हैं, तो कार्यकर्ताओं से क्या उम्मीद की जाए! -
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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