राकेश दुबे@प्रतिदिन। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आरक्षण की मौजूदा सीमा को 50 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ाने और निजी क्षेत्र में भी 50 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का सुझाव दिया है । आरक्षण पर किसी भी विमर्श की दिक्कत है कि यह अक्सर आरक्षण के समर्थन या विरोध के दो खानों में बंट जाता है। कुछ को आरक्षण में बुराइयां ही नजर आती हैं, तो कुछ लोगों को समाज के दलित-पिछडे़ तबकों की तरक्की का रास्ता आरक्षण में नजर आता है, ऐसे में गंभीर बहस की गुंजाइश छूट जाती है।
आरक्षण समर्थकों की आशंका समझ में आती है कि आरक्षण की आलोचना अक्सर ऊंची जातियों के वर्चस्व के समर्थन का बहाना बन जाती है। आजादी के बाद से हमने दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों की बराबरी के लिए आरक्षण के अलावा कोई प्रभावशाली तरीका ही नहीं ईजाद किया। भारतीय समाज में अगर वंचित तबकों को कुछ हद तक बराबरी हासिल हुई है, तो उसका सबसे बड़ा श्रेय आरक्षण को ही जाता है। आरक्षण की व्यवस्था में तमाम गड़बडि़यां हैं, उसने कई समस्याओं को भी पैदा किया है, लेकिन यह भी सच है कि जातिगत अन्याय को कुछ हद तक मिटाने का आरक्षण से ज्यादा प्रभावशाली साधन हमारे पास नहीं है। लेकिन अगर आज भी आरक्षण को बढ़ाने की मांग हो रही है, तो इसके पीछे राजनीतिक फायदा लेने की मंशा के अलावा यह आकलन भी है कि भारतीय समाज अब भी बहुत बंटा हुआ व असमान है और आरक्षण की व्यवस्था एक हद से ज्यादा उपयोगी साबित नहीं हो रही है।
जाट, गुर्जर और पटेल आरक्षण आंदोलन ने एक मायने में आरक्षण की सीमाएं और इसके राजनीतिक इस्तेमाल के खतरे दिखा दिए हैं। दूसरी ओर, आरक्षण के मामले में एक यथास्थिति जैसी हो गई है। अदालत ने आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा-रेखा खींच दी है और आरक्षण-व्यवस्था में तब्दीली के पक्ष-विपक्ष में इतने राजनीतिक समूह हैं, जिनके चलते कोई राजनीतिक व्यवस्था आरक्षण में फेरबदल की कोशिश का साहस नहीं कर पाती। सवाल यह है कि देश के सभी पिछड़े समुदायों को आरक्षण के जरिये अपनी स्थिति सुधारने का मौका क्यों नहीं मिलना चाहिए? इन्हें आरक्षण से वंचित रखने के पीछे एक अवधारणात्मक बात है कि ईसाई और मुस्लिम धर्म में जातिगत भेदभाव नहीं है, जबकि भारत में जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है। अगर ईसाई और मुस्लिम वंचितों को आरक्षण का फायदा नहीं मिलेगा, तो हम देश के सभी वर्गों और समूहों की बेहतरी का दावा कैसे कर सकते हैं?
आरक्षण व्यवस्था में बदलाव की कोई भी कोशिश तमाम राजनीतिक-सामाजिक उथल-पुथल की वजह बनेगी और इससे कहीं भी पहुंचना नामुमकिन हो जाएगा। नीतीश कुमार ने जो मुद्दे उठाए हैं, उनके संदर्भ में भारतीय समाज में बराबरी लाने के मसले पर एक खुली बहस की जानी चाहिए, जिसमें आरक्षण के अलावा दूसरे उपायों पर बात भी हो। गैर-बराबरी के खिलाफ अनेक मोर्चे खोलना वक्त की जरूरत है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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