
पिछले साल मानसून की समाप्ति के बाद ही अंदाजा हो गया था कि सूखा पड़ेगा। फिर भी राज्य सरकारों ने इस हकीकत को स्वीकार करने में खूब आनाकानी और सूखे की घोषणा करने में काफी देरी की। केंद्र का हाल यह है कि उसने मनरेगा का बारह हजार करोड़ रुपए का पिछले साल का बकाया तब तक जारी नहीं किया जब तक इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की फटकार नहीं पड़ी। यह उस सरकार का हाल है जो ‘ग्राम उदय से भारत उदय’ का दम भरती है!
संसद में चर्चा के दौरान भाजपा के कई सदस्यों ने स्थायी समाधान के लिए नदी जोड़ योजना की वकालत की। यह कोई नया तर्क नहीं है, शुरू से यही दलील दी जाती रही कि नदी जोड़ योजना जल संकट का रामबाण उपाय साबित होगी। वाजपेयी सरकार के समय ही इस योजना को अव्यावहारिक, बहुत विस्थापनकारी और घोर खर्चीली मान कर छोड़ दिया गया। दरअसल, सूखे से निपटने के लिए हमें संकट के वास्तविक कारणों में जाना होगा। कुछ साल के अंतराल पर सूखे के हालात पैदा होना कोई नई बात नहीं है, यह हमेशा होता आया है। पर दो खास कारणों से सूखा अब महासंकट में बदल जाता है। एक तो यह कि खेती जीवन यापन का साधन नहीं नहीं रह गई है। जिस साल मानसून सामान्य हो, उस साल भी किसान उपज का वाजिब दाम न मिलने से दिक्कत में रहते हैं। सूखा आ जाए, तब तो वे मुसीबत में ही पड़ जाते हैं। दूसरी वजह यह है कि पानी की बर्बादी और भूजल के अंधाधुंध दोहन के चलते पहले से ही पानी की समस्या दिनोंदिन गहराती गई है। खेती को हर हाल में जीवन लायक बनाना तथा पानी को सहेजने की विधियां और संस्कार विकसित करना ही सूखे का स्थायी समाधान है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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