भगवान शिव यहां 60 हजार वर्षों तक समाधि में रहे थे, आज भी शिवलिंग पर नीला निशान दिखाई देता है

ऋषिकेश/
उत्तराखंड। विश्व कल्याण के लिए समुद्र मंथन के बाद निकले विष को कंठ में धारण कर भगवान भोलेनाथ की हजारों वर्ष की तपस्थली रही यमकेश्वर घाटी का नीलकंठ मंदिर करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है.

पौराणिक मान्यता है कि जब भगवान शिव ने समुद्र मंथन के बाद कालकूट विष को कंठ में धारण किया तो वे नीलकंठ कहलाए। उन्हीं के नाम से इस तीर्थस्‍थल का नाम नीलकंठ तीर्थ पड़ा। कहा जाता है कि भगवान शिव ने इस स्थान पर 60 हजार वर्षों तक समाधि ली थी ताकि विष के प्रभाव को कम किया जा सके।

समाधि के उपरान्त जगद्धात्री मां सती की प्रार्थना पर प्रसन्न होकर जगत का कल्याण करने के लिये भगवान महादेव जिस वटवृक्ष के मूल में समाधिस्थ हुए थे उसी स्थान पर नीलकंठ के स्वरूप में स्वयंभू-लिंग के रूप में प्रकट हुए। इस लिंग का सर्वप्रथम पूजन मां सती ने की थी। आज यही स्थान नीलकंठ महादेव के नाम से प्रसिद्ध है और आज भी मन्दिर में स्थित शिवलिंग पर नीला निशान दिखाई देता है।

मंदिर के मुख्य पुजारी शिवानन्द गिरी ने बताया कि मध्यकालीन स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण श्री नीलकण्ठ महादेव देवालय लगभग 300 वर्ष पूर्व निर्मित किया गया। द्राविड़ (दक्षिण भारतीय वास्तुकला शैली) के अनुरूप इस मन्दिर की साज सज्जा एवं भव्यता अति विशिष्ट है। मंदिर की दीवारों पर समुद्रमंथन करते देवताओं और राक्षसों की शेषनाग के साथ मूर्तियां हैं।

उन्‍होंने कहा कि मंदिर के गर्भगृह में स्वयंभू शिवलिंग धातु निर्मित नाग से आच्छादित है। मधुमती तथा पंकजा नामक नदियों के निर्मित जलकुण्ड में स्नान कर यात्री तरोताजा होते हैं। श्रावण मास में भक्तों के अतिरिक्त श्री नीलकंठ महादेव को जल अर्पित करने लाखों की संख्या में कांवड़िये पहुंचते हैं। इस स्थान विशेष को अष्टसिद्धि एवं वाणी की सिद्धि को प्रदान करने वाला पुण्य क्षेत्र कहा गया है।

नीलकंठ पुलिस चौकी के इंचार्ज टीआर भट्ट ने कहा कि विश्व कल्याण की भावना से ओत प्रोत भोलेनाथ का यह पवित्र मंदिर के दर्शन अगर आप भी करना चाहे आने वाले सावन में शिव शम्भू के जयघोष के साथ चले आएं।

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