नितिन श्रीवास्तव। बात 30 मई, 2003 की शाम की है। उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती दिल्ली में थीं. रात में उन्हें सरकारी दौरे पर विदेश जाना था.
उधर लखनऊ में उनकी सरकार को समर्थन दे रहे अजित सिंह ने राज्यपाल से मिलकर समर्थन वापस लेेने की चिट्ठी सौंप दी.
लखनऊ के कुछ वरिष्ठ पत्रकार बार-बार मुख्यमंत्री आवास फोन कर यह जानना चाह रहे थे कि इस नाज़ुक दौर में मायावती अपना विदेश दौरा रद्द करके वापस कब पहुंच रही हैं.
आखिरकार मायावती के एक करीबी नेता ने इन पत्रकारों से फोन पर कहा, "आप भी उन लोगों में शामिल हैं जो चाहते हैं कि बहनजी विदेश न जाएं? इस बात को समझिए कि बहनजी के विदेश जाने का सपना उनके लाखों समर्थकों का है. बहनजी की आंखों से हम लोग विदेश देखेंगे."
कुछ इसी तरह के जवाब मिलते हैं अगर आप उत्तर प्रदेश के किसी भी गांव, कस्बे या शहर की किसी दलित बस्ती में थोड़ा समय बिताएँ.
बसपा के संस्थापक कांशीराम ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में 1980 के दशक में मायावती को उतारा. उसके बाद से प्रदेश के दलित समाज पर मायावती ने एकछत्र राज किया है.
मायावती की राजनीति पर उसी समय से रिपोर्टिंग कर रहीं पत्रकार रचना सरन के मुताबिक़ दलित समुदाय का मायावती के प्रति राजनीतिक नहीं, बल्कि भावनात्मक लगाव है.
उन्होंने बताया, "अगर हेमा मालिनी की रैली में लोग उन्हें देखने आते हैं तो समझ में आता है. लेकिन आप मायावती की रैलियों में जब उनका हेलीकॉप्टर उतर रहा होता है तब उसके पीछे उनका कैडर- युवा और बूढ़े- सब भाग रहे होते हैं. सब उन्हें छूना, देखना और सुनना चाहते हैं. इनकी हेमा मालिनी तो मायावती ही हैं."
चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती ने राजनीति के बीच अपने दलित वोट बैंक को बहुत कुशलता से सींचा है लेकिन सवाल हमेशा उठते रहे हैं कि प्रदेश में दलितों की एकमात्र 'मसीहा' कही जाने वाली मायावती के चलते दलितों का संपूर्ण सशक्तिकरण हो भी सका है या नहीं.
इस सवाल के जवाब की तलाश में मैं सबसे पहले मायावती के लोकसभा चुनाव क्षेत्र आंबेडकर नगर पहुंचा. पहले अकबरपुर के नाम से लोकप्रिय इस छोटे से शहर को ज़िले में तब्दील करने का कुछ श्रेय मायावती को भी जाता है.
यहाँ पर बड़े अस्पताल, कॉलेज और दलित वर्ग और पिछड़ी जातियों के लिए बड़ी आवासीय योजनाओं के पीछे भी मायावती का ही हाथ है.
ज़िले की दलित बस्तियों में मायावती को पूजा जाता है. लोग कहते हैं कि इनकी वजह से समुदाय का डर ख़त्म हो चुका है. वे अब अपनी बात खुल कर रखते हैं.
बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य कहते हैं, "हमारा कैडर बहनजी के लिए जान छिड़कता है. बस इतना ही कहना है मुझे."
बसपा में भीतर के लोग बताते हैं कि जब भी इस तरह की ख़बरें आती हैं कि बहनजी ने किसी अफ़सर को डांटा या सस्पेंड किया है तो इनके कैडर को ख़ुशी मिलती है.
तमाम दलित बस्तियों में इस बात को लेकर नाराज़गी भी है कि जैसे ही कोई दूसरी सरकार आती है सभी कल्याणकारी योजनाएं ठप पड़ जाती हैं, सरकारी नौकरियों में दलितों की पूछ कम हो जाती है.
लेकिन वीएन दास जैसे वरिष्ठ पत्रकार मानते हैं कि दलितों के लिए मायावती आज तक कोई एक बड़ी ठोस योजना नहीं ला सकी हैं, जिनसे उनका 'उद्धार' हो जाए.
उन्होंने कहा, "मायावती ने दलितों के नाम पर वोट भी लिया और सरकारें भी चलाईं लेकिन दलितों की आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव आया ऐसा मुझे तो नहीं दिखता. लेकिन जैसे मुलायम सिंह अपने यादव-मुस्लिम वोटर के नाम पर हमेशा तैनात रहते हैं, वैसे ही मायावती ने हमेशा दलित मुद्दों पर डटी रहती हैं. यही बात उनके पक्ष में जाती है."
वैसे वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी मानते हैं कि मायवती ने जो किया उसके पीछे एक मकसद था और वो काफी हद तक सफल भी रही हैं.
उन्होंने बताया, "मायवती पर पार्कों और मेमोरियल बनवाने पर अरबों रुपए खर्च करने का आरोप है. उनके आलोचक कहते हैं कि उन्हें इसी पैसे को दलितों के आर्थिक उत्थान पर खर्च करना चाहिए था. लेकिन लोग भूल जाते हैं कि दलितों को सबसे पहले सामाजिक सशक्तिकरण की आवश्यकता रही है इसीलिए जब बड़े अफसर और सवर्ण नेता मंच पर मायावती के पैर छूते दिखते हैं तो इससे दलित समुदाय का उत्थान होता है. आज वे मंदिरों में खुलकर जाते हैं और तालाबों में ताल ठोक के नहाते हैं. इस सब के पीछे मायावती ही हैं."
हालांकि इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि मायावती के नेतृत्व वाली सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं जिसका थोड़ा असर उनकी लोकप्रियता पर भी पड़ा है.
उनके परिवार पर भी आय से अधिक धन जुटाने के आरोपों की जांच हो चुकी है, हालांकि कई मामलों में नतीजा कुछ नहीं निकला है.
इस बीच दलित समुदाय, ख़ास तौर पर यूपी में, इस बात से ख़ासा नाराज़ दिखता है कि मायावती के पहनावे और 'आलीशान' रहन-सहन पर सवाल क्यों उठते रहे हैं. मायावती के एक क़रीबी ने कहा, "मीडिया ने कभी सोनिया गांधी और स्मृति ईरानी से पूछा है क्या कि वे हीरे और सोना पहनतीं है कि नहीं? अगर नहीं तो फिर मायावती पर इस तरह के सवाल क्यों उठते हैं?"
पत्रकार श्री नितिन श्रीवास्तव बीबीसी को सेवाएं दे रहे हैं।