देश में मानहानि बड़ों का खेल

Bhopal Samachar
राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत में मानहानि एक आपराधिक मामला है, जिसमें दोष सिद्ध होने पर दो साल की सजा हो सकती है, इसके अलावा जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वालों में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल और भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी थे। 

ये तीनों मानहानि के किसी न किसी मामले में आरोपी हैं, इसलिए संबंधित कानून को चुनौती देने में इनकी व्यक्तिगत दिलचस्पी भी रही होगी। पर इन याचिकाओं के बहुत पहले से भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 के औचित्य पर सवाल उठते रहे हैं। इन धाराओं के तहत मानहानि को एक आपराधिक कृत्य माना गया है। यह कानून ब्रिटिश हुकूमत की देन है।

सवाल यह है कि आज के समय में इसे प्रासंगिक क्यों माना जाए? इस कानून को संवैधानिक ठहराने के पीछे सर्वोच्च अदालत ने खासकर दो तर्क दिए हैं। एक यह कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 21 गरिमा के साथ जीने की गारंटी देता है, इसलिए अगर किसी की प्रतिष्ठा-हानि होती है तो यह एक अपराध है।

दूसरे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीम नहीं हो सकती। पर ये दोनों मकसद मानहानि को दीवानी मामला मान कर भी पूरे किए जा सकते हैं। मानहानि को आपराधिक मामला मानने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार बाधित होता है, जिसकी गारंटी संविधान के अनुच्छेद उन्नीस में दी गई है। मौजूदा मानहानि कानून सरकारों, ताकतवर राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों व भ्रष्ट उद्योगपतियों को ही रास आता है, जिन्हें आलोचनाओं और खुलासों से डर लगता है।

इस कानून ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के काम को अनावश्यक रूप से बहुत जोखिम भरा बना रखा है। कई राज्य सरकारों का रवैया इस बात का उदाहरण है कि आलोचकों को सबक सिखाने के लिए मानहानि कानून का किस कदर दुरुपयोग होता रहा है। मसलन, जयललिता सरकार ने पत्रकारों और राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ मानहानि के करीब सौ मामले दायर कर रखे हैं। 

आश्चर्य यह है कि केंद्र सरकार ने मानहानि कानून को ज्यों का त्यों बनाए रखने की वकालत की। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में निचली अदालतों के जजों और सरकारी अभियोजकों को हिदायत दी है कि मानहानि के मामले में समन भेजते समय वे सावधानी बरतें। यह सलाह खुद मौजूदा कानून के दुरुपयोग की ओर संकेत करती है। दुनिया भर की मिसालों, आपराधिक मानहानि कानून के बेजा इस्तेमाल के अनुभवों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से इसकी असंगति को देखते हुए इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। अच्छा होता कि मामले को दो जजों के पीठ के बजाय संविधान पीठ को सौंपा जाता। संसद चाहे तो इस कानून की प्रासंगिकता या इसके प्रावधानों पर पुनर्विचार की पहल कर सकती है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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