
देश भर के 452 मेडिकल कालेजों का अगर जायजा लिया जाए, तो गंभीर सवाल खड़े होंगे। अब तक एमसीआई में भारी भ्रष्टाचार और धांधली चलती रही है, इसलिए स्थिति इस हद तक बिगड़ी। एमसीआई की बुरी स्थिति की वजह से पिछले कुछ वक्त से सरकार और सुप्रीम कोर्ट की नजर उस पर पड़ी है। जिस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के लिए एक ही प्रवेश परीक्षा करवाने का आदेश दिया था, उसी फैसले में उसने एक तरह से एमसीआई को भंग करके तीन सदस्यीय कमेटी को एमसीआई के अधिकार सौंप दिए थे।
शायद इसीलिए एमसीआई की जांच इस बार काफी सख्त रही। नतीजा यह हुआ कि 84 प्रतिशत कालेज मान्यता के मानकों पर खरे नहीं उतरे। जो नकारे गये उनका एकमात्र उद्देश्य किसी भी तरह से पैसे कमाना है। इन कालेजों में लाखों-करोड़ों रुपये देकर स्नातक या स्नातकोत्तर स्तर पर छात्रों को दाखिले मिलते हैं और कालेज प्रबंधन पैसा बचाने के लिए पढ़ाई की जरूरी सुविधाएं तक नहीं देते।
मेडिकल कालेज में पढ़ाई के लिए पहली शर्त है पर्याप्त संख्या में योग्य शिक्षकों का होना।
दूसरी शर्त पढ़ाई के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा, उपकरण और सुविधाएं हैं।
तीसरी शर्त है कि कालेज से जुड़ा एक बड़ा और सुविधा-संपन्न अस्पताल हो, जिसमें सभी विभाग हों और मरीजों की संख्या पर्याप्त हो, ताकि छात्रों को व्यावहारिक प्रशिक्षण मिल सके। लेकिन गड़बड़ी करने वाले कालेज अक्सर एमसीआई की जांच टीम के आने के वक्त कुछ डाक्टरों को शिक्षक बनाकर रख लेते हैं, अस्थायी तौर पर कुछ सुविधाएं जुटा लेते हैं और नकली मरीज भर्ती कर लेते हैं।
ऐसी कमियां कई सरकारी मेडिकल कालेजों में भी हैं। इसकी वजह यह है कि अक्सर राज्य सरकारें मेडिकल कालेजों को पर्याप्त बजट नहीं देतीं, शिक्षकों की भर्ती के लिए मंजूरी नहीं देतीं या इन संस्थानों को बेहतर करने के साधन सरकारी फाइलों में अटके रहते हैं। लेकिन मुख्यत: यह समस्या निजी मेडिकल कालेजों की है, जिनके प्रबंधन को सिर्फ मुनाफे से मलतब है।
जो राजनेता एनईईटी यानी एक प्रवेश परीक्षा के खिलाफ मुखर व एकजुट हैं, उन्हें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए और डाक्टरों के विभिन्न संगठनों को भी इसके बारे में आवाज उठानी चाहिए। सबसे बड़ी जरूरत यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने चिकित्सा शिक्षा की बेहतरी के लिए जो पहल की है, सरकारी स्तर पर उसे आगे बढ़ाया जाए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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