राकेश दुबे@प्रतिदिन। मोदी सरकार की विदेश नीति चर्चा में है करीब 130 देशों के दौरे करने और कमोबेश सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रीय व अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के बावजूद आखिर क्यों नतीजे आशा के अनुरूप नहीं दिख रहे? आखिर हम चूक कहां रहे हैं? इसके कारण स्पष्ट हैं।
पहला कारण राजनयिकों की कमी। कहने को मोदी सरकार ने हाल ही में राजनयिकों की संख्या बढ़ाई है और कुछ अधिकारियों के पदों का फिर से निर्धारण भी किया है, बावजूद इसके राजनयिकों की हमारी टीम दुनिया की 20 सबसे बड़ी आर्थिक ताकतों, यानी जी-20 समूह के देशों में सबसे छोटी है। इतना ही नहीं, ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के समूह) में भी राजनयिकों की सबसे छोटी टीम हमारी ही है। दूसरा कारण विभिन्न एजेंसियों के बीच आपसी तालमेल से जुड़ा है। आज विदेश नीति से संबंधित पहल बहुमुखी प्रकृति की होती है। इसलिए विदेश नीति के प्रभावी होने के लिए इंटर-एजेंसी प्रक्रिया, यानी विभिन्न एजेंसियों से समन्वय की बात काफी महत्वपूर्ण हो जाती है। जिन देशों के साथ हम अपने संबंध बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं, अगर उनसे अपनी तुलना करें, तो साफ हो जाएगा कि यह समन्वय भारत में लगभग न के बराबर है। तीसरी कारण वित्त है। भारत दुनिया की 10 वीं सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है। यह लगातार धनी देश भी बनता जा रहा है। बावजूद इसके यहां टैक्स देने वाले लोग काफी कम हैं। आयकर के हालिया आंकड़ों के अनुसार, सवा अरब की आबादी वाले भारत में बमुश्किल एक फीसदी नागरिक कर चुकाते हैं। जी-20 और ब्रिक्स देशों के मुकाबले यह आंकड़ा काफी कम है। यह तस्वीर सक्रिय विदेश नीति की नई दिल्ली की क्षमता को प्रभावित करती है। इसी कारण, भारत सिर्फ वार्ताओं तक सिमटा रह जाता है, जबकि एक विशाल व्यापार सरप्लस के साथ चीन सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मुल्कों में लगातार निवेश करता जा रहा है।
इन प्रणालीगत खामियों के दूर करने के साथ ही प्रभावी विदेश नीति के लिए राजनीतिक पहल भी निहायत जरूरी है। सिर्फ इन्हीं मुद्दों से पार पाकर हम वैश्विक मंचों पर अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकते। जरूरत यह भी है कि भारत सामरिक नजरिये के साथ अपनी विदेश नीति को आगे बढ़ाए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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