राकेश दुबे@प्रतिदिन। सरकारी आंक्डे कहते है कि 2007 से लेकर 2011 तक दहेज के मामलों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2012 में दहेज हत्या के 2,833 मामले सामने आए। वर्ष 2011 में दहेज के कारण स्त्रियों की हत्या के मामले 2,618 थे। यानी औसतन एक घंटे में एक स्त्री की हत्या दहेज के कारण हुई है। 2013 में दहेज निरोधक कानून के दायरे में आने वाले 10,709 मामले दर्ज किए गए।शायद दहेज प्रथा के पीछेकभी यह मंशा रही हो कि लड़की को पिता के घर में जिन चीजों के व्यवहार की आदत है, पति के घर उसे उन चीजों का अभाव महसूस न हो, तो भी यह हास्यास्पद तर्क है। भारत में पारंपरिक विवाह प्राय: हैसियत में बराबरी के लोगों के बीच ही हुआ करते हैं|
छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए स्त्री को जला कर मार देना क्रूरता की पराकाष्ठा है। कभी पिता के घर से एक स्कूटर न लाने के कारण, कभी पैसे के कारण, कभी अन्य किसी चीज के कारण विवाहिता को जला कर या अन्य किसी तरीके से मार डाला जाता है। कन्या भ्रूणहत्या से लेकर दहेज हत्या तक सामाजिक कारण एक ही है। लड़की को दहेज देना पड़ेगा, वह माता-पिता के लिए आर्थिक तौर पर बोझ साबित होगी। अत: लड़की पैदा होने का मातम होता है और कई जगह पैदा होने के पहले ही गर्भस्थ कन्या-शिशु को मारने के सारे इंतजाम कर लिये जाते हैं। इस तरह की क्रूरताओं से बच गई कुछ लड़कियां दहेज हत्या का शिकार होती हैं।
वर्ष 2013 के दर्ज आंकड़ों से जाहिर है कि दहेज संबंधी हत्याओं का प्रतिशत साल-दर-साल बढ़ रहा है। स्त्री को वस्तु और बोझ के रूप में देखने के कारण वर-पक्ष लड़की से विवाह के बदले दहेज की मांग करता है। कई राज्यों में तो पेशों के हिसाब से दहेज की रकम निश्चित होती है। दहेज के लेन-देन में उत्तर के राज्य हों या दक्षिण के, सभी एक जैसे हैं। साक्षरता दर में अगड़े और पिछड़े राज्यों में दहेज के लेन-देन के मामलों में फर्क नहीं है। आंध्र प्रदेश और बिहार दहेज हत्या के मामले में थोड़े ही अंतर से आगे-पीछे हैं। केरल में साक्षरता दर सर्वाधिक है, उसी मात्रा में वहां दहेज का लेन-देन भी है।
दहेज हत्या के बढ़ते आंकड़ों के बावजूद दहेज प्रथा का उन्मूलन किसी राजनीतिक दल के घोषणापत्र का हिस्सा नहीं बन पाया है। मंगलसूत्र बांटना, साड़ियां बांटना, सामूहिक विवाह के अवसर पर उपहार के रूप में दहेज का जुगाड़ राजनीतिक दल करते और वोट बटोरते रहे हैं। इससे समाज में इस हत्यारी प्रथा को मदद ही मिलती है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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