राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश के राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने नीट [NEET] को लेकर सरकार द्वारा लाये जाये अध्यादेश पर विधिवेत्ताओं से राय मांगी है। यह एक बड़ा फैसला है। इससे जुड़े अनेक मुद्दे न केवल अहम हैं बल्कि देश की दिशा को तय करने वाले भी हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फैसला किया था कि मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक परीक्षा (नीट) को एक साल टालने का अध्यादेश लाया जाएगा। परीक्षा कराने का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने किया था और इस परीक्षा का एक चरण हो भी चुका है। अध्यादेश लाने के पीछे तर्क यह है कि इसी साल से यह परीक्षा कराने से तमाम राज्यों के उन छात्रों के साथ अन्याय हुआ है, जो उन राज्यों के बोर्ड की तैयारी करते हैं या अपने राज्य की भाषा में पढ़ाई करते हैं, क्योंकि जो अखिल भारतीय परीक्षा है, वह CBSE के पाठ्यक्रम के मुताबिक है और सिर्फ अंग्रेजी व हिंदी में है।
सच तो यह है की इस सबके पीछे कई राज्यों के नेता भी एकजुट हैं। हर राज्य के निजी मेडिकल कालेज से कोई न कोई नेता जुडा है। तर्क यह है कि अगर एक साल बाद परीक्षा हुई, तो ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जा सकेगा, जिससे किसी भी बोर्ड की परीक्षा देने वाले छात्र के साथ अन्याय न हो पाए। साथ ही, स्थानीय भाषाओं में भी परीक्षा का इंतजाम किया जा सकेगा। तब तक मौजूदा व्यवस्था को जारी रखा जाए।
छात्रों और अभिभावकों की जो शिकायत है, वह वाजिब लगती है और उसे दूर करने के लिए जरूर कुछ किया जाना चाहिए। एक अच्छा तरीका तो यही है कि सुप्रीम कोर्ट को इस बात के लिए राजी किया जाए कि वह अपने आदेश में बदलाव करे। सुप्रीम कोर्ट को सरकार यह लिखित आश्वासन दे कि इस साल वह मौजूदा इंतजाम को जारी रहने दे, एक साल में सरकार नए तरीके से परीक्षा कराने का पूरा इंतजाम जरूर कर लेगी।
'नीट' के इस साल न करवाने के खिलाफ जितने भी तर्क हों, लेकिन एक डर यह जरूर है कि इसे एक साल टालने के पीछे की मंशा यह न हो कि इसे जब तक हो सके, टाल दिया जाए। यह डर इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि इस सिलसिले में सबसे ज्यादा मुखर राजनेता महाराष्ट्र, कर्नाटक व तमिलनाडु जैसे राज्यों से हैं, जहां बड़ी तादाद में निजी मेडिकल कॉलेज हैं।
इन मेडिकल कॉलेजों में से बहुत सारे राजनेताओं या उनसे जुड़े लोगों के हैं। सभी जानते हैं कि निजी मेडिकल कॉलेजों में डोनेशन और कैपिटेशन फीस के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपये लेकर समृद्ध लोगों के बच्चों को दाखिला दिया जाता है। 'नीट' से इस कारोबार पर काफी हद तक रोक लग जाएगी, क्योंकि तब इन मेडिकल कॉलेजों को 'नीट' से चुने गए छात्रों को ही दाखिला देना पड़ेगा। दाखिले में मनमानी का उनका अधिकार खत्म हो जाएगा। जैसा कि पिछले दिनों कुछ मेडिकल कॉलेजों की मान्यता से संबंधित एमसीआई की जांच से पता चलता है कि बड़ी तादाद में ऐसे मेडिकल कॉलेज सिर्फ मुनाफा कमाने के लिए चलते हैं, उनके पास न जरूरी बुनियादी सुविधाएं हैं, न अस्पताल हैं, और न ही शिक्षक। 'नीट' इस दुकानदारी पर नियंत्रण का एक प्रभावी साधन बन सकता है।
एक राष्ट्रव्यापी परीक्षा को लागू करने की कोशिश न जाने कब से चली आ रही है, जो अब जाकर सुप्रीम कोर्ट की पहल पर कामयाब हुई है। अगर सरकार 'नीट' की कमियों को दूर करने के लिए कोशिश कर रही है, तो अच्छी बात है, लेकिन उसे यह स्पष्ट आश्वासन देना चाहिए कि अगले साल किसी भी हाल में यह परीक्षा होगी। इसके अलावा यह करने के लिए पहले न्यायपालिका के आदेश के खिलाफ अध्यादेश लाने की बजाय कोई बेहतर तरीका खोजने की कोशिश करनी चाहिए। अध्यादेश से तमाम किस्म की पेचीदगियां और बदमगजी पैदा हो सकती हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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