गुरु द्रोणाचार्य, जो पाण्डवों और कौरवों के गुरु थे, उन्हें archery का ज्ञान देते थे। एक दिन, एकलव्य, जो कि एक गरीब शूद्र परिवार से थे, गुरु द्रोणाचार्य के पास आए और बोले, "Gurudev, मुझे भी धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करना है। Please मुझे आपका शिष्य बनाकर धनुर्विद्या का ज्ञान दीजिए।"
लेकिन द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपनी helplessness बताते हुए कहा, "मैं तुम्हें शिष्य नहीं बना सकता क्योंकि तुम एक शूद्र हो। तुम किसी और गुरु से शिक्षा प्राप्त कर लो।"
इस बात को सुनकर एकलव्य वहाँ से चले गए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने जंगल में जाकर द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उसे अपना गुरु मानकर self-practice शुरू कर दिया।
कई दिनों बाद, अर्जुन और द्रोणाचार्य hunting के लिए जंगल में गए। उनके साथ एक कुत्ता भी था। अचानक, वह कुत्ता दौड़ते हुए एक जगह जाकर भौंकने लगा, लेकिन कुछ समय बाद उसका भौंकना बंद हो गया। अर्जुन और द्रोणाचार्य को यह अजीब लगा और वे उस direction में गए, जहाँ से कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आ रही थी।
जब वे वहाँ पहुँचे, तो देखा कि किसी ने कुत्ते का मुँह तीरों से इस तरह बंद कर दिया था कि उसे चोट भी नहीं लगी और वह भौंक भी नहीं सकता था। यह देखकर द्रोणाचार्य stunned हो गए और सोचने लगे, "इतनी skillful archery तो मैंने अर्जुन को भी नहीं सिखाई है। यह कैसे possible है?"
तभी, एकलव्य सामने आया, हाथ में bow और arrow लिए हुए। यह देखकर द्रोणाचार्य और भी हैरान हो गए।
उन्होंने एकलव्य से पूछा, "बेटा, तुमने यह सब कैसे किया?"
एकलव्य ने humble होकर जवाब दिया, "Gurudev, मैंने आपकी एक मूर्ति बनाई और उसे अपना गुरु मानकर daily practice किया। उसी अभ्यास के कारण, आज मैं इतना कुशल धनुर्धर बन पाया हूँ।"
गुरुदेव ने कहा, "तुम धन्य हो! तुम्हारे hard work और dedication ने ही तुम्हें इतना महान धनुर्धर बनाया है। आज मैंने समझा कि practice ही सबसे बड़ा गुरु है।"