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यदि छठा वेतन निर्धारण से अध्यापकों के वेतन में कमी आती है तो निश्चित रूप से सरकार का यह तुगलकी फरमान किसी अत्याचार से कम नहीं है परंतु इसके पीछे अध्यापक भी कम दोषी नहीं हैं।
यदि आप छठे वेतन की घोषणा के बाद अध्यापकों की गतिविधियों पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाएगी। अध्यापकों ने स्वयं मुख्यमंत्री से बात करने के बजाय मध्यस्थ का सहारा लिया जिसे उसके बाद सरकार की ओर से पारितोषिक भी प्रदान किया गया। हर अध्यापक जानता था कि सरकार आदेश में ही सारा खेल खेलती है फिर भी अध्यापकों ने मात्र घोषणा पर जश्न मनाना शुरू कर दिया। मुख्यमंत्री के साथ मंच पर बैठने और फोटो खिंचवाने की अभिलाषा ने आदेश में खेले जाने वाले खेल से ध्यान हटा दिया। पूरे मध्यप्रदेश में ऐसा जश्न मनाया गया कि विरोध की कोई गुंजाइश नहीं रही। जो काम सरकार को करना था वह काम खुद अध्यापकों ने कर दिया।
एक संगठन ने तो मुख्यमंत्री का अभिनंदन समारोह तक करने की तिथि घोषित कर दी किन्तु बाद में अपनों के विरोध के चलते कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा।
सवाल यह है कि क्या सिर्फ मुख्यमंत्री के साथ फोटो खिचवाने या उसके बाजू में बैठने के लिए आंदोलन किए जाते हैं या फिर उसका सरोकार अध्यापक हितों से भी होता है। यदि आंदोलन का सरोकार अध्यापक हित है तो फिर बिना कुछ मिले और आदेश के गहन अध्ययन के अध्यापक सरकार के पक्ष में चले क्यों जाते हैं। अध्यापकों का गुस्सा स्थिर रूप से टिक क्यों नहीं पाता है?
अब इस गणना-पत्रक में संशोधन के लिए आंदोलन किया जाएगा किन्तु अध्यापक अब हर हाल में नुकसान में है। हो सकता है सरकार गणना-पत्रक की गलतियां सुधार भी दे परंतु तभी शासकीय कर्मचारियों को सातवा वेतन दिया जाएगा। यदि अध्यापक गणना-पत्रक में संशोधन से ही खुश हो जाते हैं तो उनके सातवे वेतनमान की बलि चढ़ना तय है। इसके साथ ही आगामी चुनाव पूर्व आंदोलन में शिक्षा विभाग में संविलियन की मांग प्रमुखता से उठाई जाती किन्तु यहां तो मामला छठे वेतन का ही अटका पड़ा है और ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इसमें सुधार के बाद माला पहनाने की कतार में खड़े न हो जाएं। कुल मिलाकर 18 वर्षों के संघर्ष से अध्यापक कुछ नहीं सीख पाया , सिवाय मुख्यमंत्री का कृपापात्र बनने के।
वीरेन्द्र कुमार पटेल
वार्ड क्रमांक- ४, ब्योहारी, जिला- शहडोल म.प्र.
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