ग्वालियर। प्रदेश भर के भ्रष्ट अफसरों को छापामारी कर बेनकाब करने वाली लोकायुक्त पुलिस के दामन पर अब दाग लगते जा रहे हैं। पिछले 5 साल में लोकायुक्त ने लगभग 40 ऐसे अफसरों को क्लीनचिट दे दी, जिनके यहां छापामारी कर लोकायुक्त ने करोड़ों की काली कमाई का खुलासा किया था। बताया जा रहा है कि छापे के बाद लोकायुक्त 2 तरह की जांच करता है। एक फंसाने वाली, दूसरी बचाने वाली। दोनों जाचों में लोकायुक्त का पैमाना ही बदल जाता है। अधिकारियों की संपत्ति की गणना में ऐसी हेरफेर की जाती है कि सारी की सारी काली कमाई व्हाइट हो जाती है।
य होती है प्रक्रिया
विशेष स्थापना पुलिस को अगर किसी अधिकारी की शिकायत मिलती है तो सबसे पहले एफआईआर दर्ज की जाती है। फिर संपत्ति का आकलन किया जाता है। छापा मारने से पहले संबंधित अधिकारी की संपत्ति ज्यादा (अधिकांश मामलों में आय से 300 से 500 प्रतिशत अधिक) होने पर ही कोर्ट से छापा मारने की अनुमति ली जाती है। छापे के दौरान घर में मिले हर सामान को नोट किया जाता है, जिसे आय व व्यय में जोड़ा जाता है।
दो तरह की जांच बचाने की अलग, फंसाने की अलग
छापे के बाद जांच दो तरह से की जा जाती है। जिसे बचाना होता था, उसकी आय की गणना ग्रॉस सैलरी जोड़कर और अन्य साधनों जैसे खेती आदि से 100 फीसदी आय बता दी जाती है। इसी तरह व्यय भी कम बताया जाता है। इसके लिए व्यय की कई मदों को छोड़ दिया जाता है।
वहीं जिसे फंसाना होता है उसकी ग्रॉस सैलरी (बिना पीएफ आदि कटौती के वेतन) को आय न मानते हुए नेट सैलरी (कटौती के बाद वेतन) को आय माना जाता है। इससे नौकरी के दौरान की आय देखी जाती है, तो नेट सैलरी के कारण कुल आय कम दिखती है। ठीक इसी तरह खेती से होने वाली आय को भी 50 फीसदी बताकर हिसाब जोड़ा जाता है।
इसे ऐसे समझा जा सकता है
अगर किसी व्यक्ति की ग्रॉस सैलरी 45 हजार रुपए मासिक है तो उसे पीएफ, मकान भत्ता आदि कटौती-खर्च के बाद तकरीबन 30 हजार रुपए मिलते हैं। अगर आय ग्रॉस सैलरी से जोड़ते हैं तो एक साल की कमाई ही 5 लाख 40 हजार होती है, लेकिन नेट सैलरी से जोड़ते हैं तो 3 लाख 60 हजार होती है। जिसे फंसाना होता है उसकी सालाना आय 3 लाख 60 हजार बताकर बाकी कमाई अवैध बता दी जाती है।
लोकायुक्त को दिया प्रजेंटेशन
पीएचई के दो अधिकारियों ने सूचना के अधिकार के तहत मिली 40 से ज्यादा एफआर (फाल्स रिपोर्ट) के आधार पर लोकायुक्त को दिए प्रजेंटेशन में बताया है कि कैसे अधिकारियों को बचाया और फंसाया जा रहा है।
बचाने वाली जांच के प्रमाण
आबकारी विभाग के डिप्टी कमिश्नर डीआर जौहरी के खिलाफ 14 अप्रैल 2010 को आय से अधिक संपत्ति का केस दर्ज किया। बाद में पत्नी की 7 लाख आय दिखाई, जो कंप्यूटर टाइपिंग से बताई गई। आखिर में एफआर लगा दी। आय से 3 फीसदी अधिक संपत्ति बताई।
ट्रायबल वेलफेयर के सहायक यंत्री रामलखन सिंह यादव की एफआर इंदौर में पेश की गई। इन्हें फायदा पहुंचाने के लिए आय की गणना ग्रॉस सैलरी के आधार पर की गई और कृषि से 100 प्रतिशत आय बताई गई। ग्रॉस सैलरी जोड़ने से आय 15 लाख बढ़ गई और खेती से 100 प्रतिशत आय बताने पर 12 लाख 50 हजार अतिरिक्त आय मिली। इस तरह गणना होने से 27 लाख की आय अधिक हो गई। 27 लाख आय बढ़ने से उनका व्यय 7.2 फीसदी अधिक रहा। इस वजह से एफआर लग गई।
फंसाने वाली जांच के प्रमाण
गुना में जल संसाधन विभाग के सब इंजीनियर एमके जैन के यहां लोकायुक्त छापा पड़ा। इनकी आय की गणना कुल प्राप्त वेतन पर की गई। इससे आय 15 लाख रुपए कम हो गई। खेती से सिर्फ 50 फीसदी आय बताई गई। इससे उनका व्यय, आय से अधिक पहुंच गया और गुना कोर्ट में चालान पेश कर दिया गया।
10 प्रतिशत का अंतर माफ है
आय से अधिक संपत्ति सुप्रीम कोर्ट ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में मानक निर्धारित किया है। आय से 10 फीसदी अधिक तक संपत्ति है तो इसे आय से अधिक संपत्ति नहीं माना जाता। अगर आय इससे ऊपर है तो ही केस बनेगा।
व्यय की गणना में इन बिंदुओं को भी छोड़ा जा रहा
आय से अधिक संपत्ति के मामले में आय व व्यय की गणना करते वक्त बिजली के बिल, बच्चों की पढ़ाई के खर्च की भी गणना की जाती है, लेकिन जो खात्मा रिपोर्ट लगाई गई, उनमें इन दोनों को नहीं जोड़ा गया। छापा मारते वक्त घर के सामान की अधिकतम कीमत लगाई जाती है, लेकिन जांच के बाद आधी से कम रह जाती है। जलकर की राशि व्यय में जोड़ी जाती है, लेकिन परिवहन विभाग के प्रधान आरक्षक की जलकर की राशि व्यय में नहीं जोड़ी गई।
गलत है तो कोर्ट में जाइए
खात्मा रिपोर्ट पेश होने पर कोर्ट को गलत लगता है तो पुनः जांच के लिए निर्देशित कर सकता है। कोर्ट के बताए बिंदुओं पर फिर जांच की जाएगी। जांच कर खात्मा लगाने वाले अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है।
पीपी नावलेकर, लोकायुक्त, मध्यप्रदेश
इनपुट: बलबीर सिंह, पत्रकार, नईदुनिया, ग्वालियर।