संसार में कोई किसी को उतना परेशान नहीं करता, जितना कि मनुष्य के अपने "दुर्गुण" और "दुर्भावनाएँ।" दुर्गुण रूपी शत्रु हर समय मनुष्य के पीछे लगे रहते हैं, वे किसी समय उसे चैन नहीं लेने देते।
कहावत है कि "अपनी अकल" और "दूसरों की संपत्ति", चतुर को चौगुनी और मूरख को सौगुनी दिखाई पड़ती रहती है। संसार में व्याप्त इस भ्रम को महामाया का मोहक जाल ही कहना चाहिए कि हर व्यक्ति अपने को पूर्ण निर्दोष और पूर्ण बुद्धिमान मानता है। न उसे अपनी त्रुटियाँ सूझ पड़ती हैं और न अपनी समझ में दोष दिखलाई पड़ता है। इस एक ही दुर्बलता ने मानव जाति की प्रगति में इतनी बाधा पहुँचाई है, जितनी संसार की समस्त अड़चनों ने मिलकर भी न पहुँचाई होगी।
सृष्टि के सब प्राणियों से अधिक बुद्धिमान माना जाने वाला मनुष्य जब यह सोचता है कि "दोष तो दूसरों में ही हैं, उन्हीं की निंदा करनी है, उन्हें ही सुधारना चाहिए। हम स्वयं तो पूर्ण निर्दोष हैं, हमें सुधरने की कोई जरूरत नहीं।" तब यह कहना पड़ता है। कि उसकी तथाकथित बुद्धिमत्ता अवास्तविक है। इस दृष्टिकोण के कारण अपनी गलतियों का सुधार कर सकना तो दूर कोई उस ओर इशारा भी करता है, तो हमें अपना अपमान दिखाई पडता है। दोष दिखाने वाले को अपना शुभचिंतक मानकर उसका आभार मानने की अपेक्षा मनुष्य जब उलटे उस पर क्रुद्ध होता है, शत्रुता मानता है और अपना अपमान अनुभव करता है, तो यह कहना चाहिए कि उसने सच्ची प्रगति की ओर चलने के लिए अभी एक पैर उठाना भी नहीं सीखा।
बाहरी उन्नति की जितनी चिंता की जाती है, उतनी ही भीतरी उन्नति के बारे में भी की जाए, तो मनुष्य दोहरा लाभ उठा सकता है, किंतु यदि आंतरिक उन्नति को गया-बीता रखा और बाहरी उन्नति के लिए ही निरंतर दौड़-धूप होती रही तो कुछ साधन- सामग्री भले ही इकट्ठा कर ली जाए, पर उसमें भी उसे शांति न मिलेगी। अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता, इसका मूल्य जीवन की असफलता का पश्चाताप करते हुए ही चुकाना पड़ता है।
आरंभ छोटे-छोटे दोष-दुर्गुणों से करना चाहिए। उन्हें ढूँढना और हटाना चाहिए। इस क्रम से आगे बढ़ने वाले को जो छोटी- छोटी सफलताएँ मिलती हैं, उनसे उसका साहस बढ़ता चलता है। उस सुधार से जो प्रत्यक्ष लाभ मिलते हैं, उन्हें देखते हुए बड़े कदम उठाने का साहस भी होता है और उन्हें पूरा करने का मनोबल भी संचित हो चुका होता है।