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मध्यप्रदेश में यह पहली बार नहीं हो रहा है। ऐसा एक बार पहले भी हुआ है। तब एक सोशल इंजीनियर ने खम ठोंक कर था, “मुझे उनके वोटो की जरूरत नहीं”। ऐसे वाक्य समाज में गैर बराबरी को कम नहीं करते, अपितु बढ़ाते हैं और बढ़ते-बढ़ते इसकी शक्ल इतनी खराब हो जाती है कि पहले आपसी रिश्ते दरकते हैं और समाज में एक ऐसा वातावरण बनने लगता है। जो गैर बराबरी के प्रयासों को बराबर कर डालता है।
ऐसी टिप्पणीयों से ताली तो बटोरी जा सकती है पर वो ताल बिगड़ जाती है, जो समाज के विकास के लिए बज रही होती है। चुनाव के दौरान तुष्टिकरण के लिए यह सब कितने सालों से हो रहा है, अभी जाति, कभी धर्म और अब कर्म को केंद्र बनाकर विकास की बमुश्किल पटरी पर आई गाडी को उतारने की कोशिश के अलावा इसे कोई और नाम नहीं दिया जा सकता है। भोपाल अकार्ड और सोशल इंजीनियरिंग के जुमलों के विरोध में बने ताज को तो ही आज, शिवराज पहने बैठे हैं।
दोष सत्ता के मद का है। जो कभी किसी के विरुद्ध तो कभी किसी के विरुद्ध निकल कर अपने को सबसे समझदार साबित करने लगता है। न्यायलय में चल रहे मुकदमो और निर्णयों की अपील के बावजूद जल्दबाजी में की गई टिप्पणी हमेशा घातक सिद्ध हुई हैं। 15 साल पहले का इतिहास है। समाज ने जो मुकुट सौंपा है, उसमें कम और ज्यादा दोनों तरह की कलगी लगी है, इन्हें नोचने पर मुकुट गंजा और बदरंग हो जाता है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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