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मुस्लिम महिलाओं के हक की लड़ाई धार्मिक नहीं, सामजिक है

रचना पाटीदार। वर्षो तक घर परिवार संभालते हुए जिन्दगी गुजार देने के बाद उम्र के एक पड़ाव पर पति से अलग होने या तलाक पाने पर एक महिला अपनी जिन्दगी किस तरह गुजार सकत है? इस सवाल का उत्तर भारतीय दण्ड सहिंता की धारा 125 में दिया गया है। क्योंकि तलाक के बाद यदि महिला का आय का स्रोत नही है तो उसके सामने भरण पोषण का घोर संकट पैदा होता है जिससे उसके जीवन जीने के अधिकार का हनन होता है लेकिन क्या किसी महिला के जीवन जीने के अधिकार की रक्षा करने से इसलिए मना कर दिया जाता है कि वह किसी धर्म विशेष की है। 

1985 में भारत के सर्चोच्च न्यायालय में शाह बानो प्रकरण के संदर्भ में यह सवाल उठा था और माननीय सर्चोच्च न्ययालय ने शाह बानो को उसका अधिकार दिलवाया था। किन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि तत्का्लीन भारत सरकार ने संसद में कानून बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को पलट दिया और शाहबानो सहित देश की असंख्य मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकार से वंचित कर दिया। आज सर्वोच्च न्यायाल में उत्तराखण्ड की शायराबानो की एक याचिका के संदर्भ में यह सवाल फिर सामने आया है। 

दरअसल मुस्लिम धर्म में कई तरह की प्रथाएं हैं, जो महिला-पुरूषो के बीच भेद उत्पन्न करती है, बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मुस्लिम महिलाओं को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करती है। जिसमें पति द्वारा तीन बार तलाक कहने पर रिश्ताए खत्म हो जाना, इद्दत की अवधि के बाद गुजारा भत्ता नहीं देना। पुरूष द्वारा बहुविवाह, हलाला निकाह आदि। हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा समान नागरिक कानून लागू किये जाने की बात पर पूरे देश में व्यापक बहस छीड गई थी। किन्तु समान नागरिक कानून को किसी धार्मिक चश्मे। से नही देखा जाना चाहिए, क्योकि यह देश की आधी आबादी से जीवन जीने के सवाल से जुडा मुददा है।  गौरतलब है कि समान नागरिक कानून की मांग भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन के माध्यम से देश की 50 हजार से अधिक महिलाओं ने उठाई थी, जो इस बात को साबित करती है कि यह एक धार्मिक मामला न होकर पितृ सत्ता और लैंगिग भेदभाव पर केन्द्रित मुद्दा है। 

भारतीय मुस्लिम महिला अंदोलन द्वारा देश के 10 राज्यों में 4710 मुस्लिम महिलाओं के एक सर्वे में निकलकर आया है कि 92 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं तलाक के नियम को एक तरफा एवं पुरूषों के पक्ष में मानती है। इस सर्वे में यह चौकाने वाला तथ्य भी सामने आया है कि कुल तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं में से  65 प्रतिशत महिलाएं जुबानी तलाक से पीड़ित है। सर्वे में करीब आधी मुस्लिम महिलाएं घरेलू हिंसा से पीड़ित पाई गई। खास बात है कि आज देश की मुस्लिेम महिलाएं अपने खिलाफ हो रहे अत्याचार के लिए आवाज उठाने लगी है और वे अपने धर्म की पुरूषप्रधान परंपराओं को चुनौती दे रही है। सर्वे में 91 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं ने माना है वे पति की दूसरी शादी के खिलाफ है, वहीं 75 प्रतिशत महिलाएं अपनी बेटी की शादी 16 वर्ष से अधिक उम्र में करना चाहती है। कश्मीेर  के इन आंकड़ों में मुस्लिम महिलाओं की आजादी की जंग देखी जा सकती है, जिसमें अक्टूबर-नवंबर 2015 यानी मात्र दो माह में 40 महिलाओं ने अपने पतियों को खुद इसलिए तलाक दे दिया, क्योंकि वे नशे की आदत छोड़ने को तैयार नहीं थे। 

मुस्लिम पर्सनल लॉ में पुरूष को एकाधिकार देकर उसे महिलाओं से अधिक ताकतवर और महिलाओं के जीवन का निर्णायक बनाया है। इस तलाक में महिला की मर्जी शामिल हो या ना हो, उन्हे स्वीकार करना ही पड़ता है। इस तरह धर्म के नाम पर महिलाओ के हाथ बंधे होते है और उन पर तलाक की तलवार लटकती रहती है। जबकि मुस्लिम पति एक पत्नि के होते हुए दूसरा विवाह आसानी से कर लेता है। 

भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 से 17 तक समानता का अधिकार निहित है।  संविधान में किसी भी प्रकार से धर्म जाति या अन्य किसी आधार पर महिला और पुरूषों के बीच भेद-भाव का उल्लेख नहीं है, तो फिर धर्म के नाम पर महिलाओं के साथ विवाह के बाद तलाक लेने का एकतरफा फैसला करना महिलाओं पर अन्याय है। 

शायरा बानो ने अपनी याचिका में कहा है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव के मुद्दे, खास करके एकतरफा तलाक और एक पत्नि के होते हुए भी मुस्लिम पति द्वारा दूसरा विवाह  करने के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय द्वारा तो विचार किया ही जा रहा है। किन्तु भारत की संसद की भी यह  जिम्मेदारी है कि वह महिलाओं के हितों में समान नागरिक कानून पर विचार करें। क्योकि सन् 1985 में की गई गलती का प्राश्चित करना अभी भारत की संसद के लिए बाकी है।  

रचना पाटीदार
एसोसिएट डायरेक्टर: समान सेंटर फॉर जस्टिस एण्ड इक्वालिटी 
जी-48, स्कीम 97, स्लाईस - 6, रेती मंडी, राजेन्द्र नगर,
इन्दौर (म.प्र.)
फोन: 9685105353

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