राकेश दुबे@प्रतिदिन। मध्यप्रदेश में हाल ही में हुए मंत्रिमंडल विस्तार से सब खुश नहीं हैं। भोपाल से दिल्ली वाया इंदौर एक अजीब किस्म की नाराजी है। भाजपा में पहले ऐसा नहीं हुआ कि, दूसरे राजनीतिक दल से आयातित व्यक्ति छोटों बड़ों को फलांगता हुआ राजभवन जा पहुंचे और शपथ लेने वालों की सूची शपथ ग्रहण समारोह के कुछ मिनिट पहले अपना नाम जुड़वाँ ले। बकौल नन्द कुमार सिंह चौहान हमने वादा निभाया है। उनकी बात मान ले तो क्या यह ले-दे उस जनता के साथ वादा खिलाफी नहीं है, जिससे आपने स्वच्छ राजनीति का वादा किया था। इस सारे तमाशे में भाजपा यह भूल गई इन मंत्रियों में वे भी हैं जो पहले हटाये गये थे और वे भी जिन पर इतने गंभीर मामले हैं कि उन्हे मंत्रालय में नहीं कहीं और होना चाहिए। सरकारी नौकरी में प्रमाणित कदाचरण के बाद मुक्त होने वाले भी इस बार सरकार हो गये हैं।
सुना है संघ की और से निगहबानी के लिए तैनात सन्गठन मंत्री को यह सब नहीं सुहाया और उन्होंने अपने तेवर दिखा दिए। संघ की शिक्षा के अनुरूप उन्होंने कह डाला कि “वादा नहीं विचार महत्वपूर्ण होता है।” इस से क्या संदेश जायेगा इसकी भी उन्हें चिंता है। ले-दे का अर्थ जल्दबाजी के साथ कुछ और भी लगया जा रहा है, लाभान्वित दबे स्वर में यह भी कह देते हैं की कोई भी वादा यूँ ही नही करता।
इस ले-दे के खेल में विभागों का बंटवारा भी देरी से हुआ। व्यपारी को उद्योग मिल गये। सारे मंत्री खुश नहीं हैं। पार्टी का अनुशासन सडक पर आ गया और जो कसर बची है वो इंदौर में ताई और भाई की रार पूरी कर देगी। बकौल नंदू भाई 75 से उपर वालों को टिकट नहीं मिलेगा। तो वे बेचारे क्या करेंगे, सब मार्गदर्शक तो नही ही हो सकते। भाजपा का यह फार्मूला यदि संघ में भी लागु हो गया तो 75 पार के वे प्रचारक कहाँ जायेंगे, जो भाजपा जैसे संगठन जीवन होम करके खड़ा करते हैं। इस ले-दे ने उस “बोल्ड” को “ओल्ड” करार दे दिया, जो अब भी बुल डोजर है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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