राकेश दुबे@प्रतिदिन। जम्मू-कश्मीर में जो हालात बने हुए हैं, वे कोई आज के नहीं हैं। इसके बीज तो काफी पुराने हैं। जब जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भारत के साथ कानूनी रिश्ता जोड़ दिया, विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और इसका स्वागत शेख अब्दुल्ला ने स्वयं इन शब्दों से किया कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में, 'मुझे इस बात पर गर्व है कि मेरे जम्मू-कश्मीर ने भारत के साथ विलय करके भारत का दामन संभाल लिया है', तो फिर अनुच्छेद-370 क्यों? इसे लागू करके हमारे नेताओं ने गलतियां की हैं। आज अमन की घाटी कहे जाने वाले कश्मीर में बंदूकें व तोपें गरज रही हैं। केसर की जगह फिजां में बारूद की गंध पसर रही है। आखिर इसे कौन बढ़ावा दे रहा है? या फिर हथियार कहां से आ रहे हैं? वह भी तब, जब करीब पांच लाख से ज्यादा सैनिक अपनी जान को जोखिम में डाल इसकी सीमाओं की रक्षा कर रहे हैं।
इन सभी सवालों के जवाब जम्मू-कश्मीर के इतिहास में छिपे हैं। 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान पूरे देश पर लागू हुआ और 566 रियासतें व 11 ब्रिटिश प्रांत भारतीय गणराज्य में शामिल होकर इसके स्थायी हिस्सेदार बन गए।जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने विलय के प्रारूप पर 26 अक्तूबर, 1947 को हस्ताक्षर किया | जब 577 राज्यों व रियासतों को भारत संघ में जोड़ दिया गया, जिनमें दो रियासतों के शासकों ने हस्ताक्षर भी नहीं किए थे, तो फिर जम्मू-कश्मीर को इन सबसे अलग क्यों रखा गया? इसे भारत के संविधान का हिस्सा क्यों नहीं बनाया गया? उसे भारतीय संविधान में अस्थायी प्रावधान अनुच्छेद-370 लगाकर अलग कर दिया गया, जबकि वह अस्थायी स्वरूप अब तक नहीं बदला जा सका है। महाराजा हरिसिंह के बनाए 1939 के संविधान का विस्तार करके ही 1956 में जम्मू-कश्मीर पर एक कथित संविधान लाद दिया गया।
हकीकत यह है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने भारत की परंपराओं, संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता को पूरा निभाया, जबकि भारत सरकार जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ हमेशा खिलवाड़ करती रही। जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ सबसे बड़ी त्रासदी यह हुई कि सूबे को संविधान तो दे दिया गया, मगर उसमें मानवाधिकार का कोई उल्लेख ही नहीं है, जिनको भारतीय संविधान के अध्याय-तीन में बड़ी खूबसूरती से पेश किया गया है। जम्मू-कश्मीर तीन क्षेत्रों की संस्कृति व सभ्यता से जुड़ा है। होना तो यह चाहिए कि तीनों क्षेत्रों को भारतीय संविधान के अंतर्गत उनकी मान्यता के आधार पर मानवाधिकार व राष्ट्र में आगे बढ़ने के अवसर मिले।
आज जम्मू-कश्मीर में जो हो रहा है, उसकी जिम्मेदारी भारत की विधायिका पर भी है कि वह जम्मू-कश्मीर के लोगों को आज तक मानवाधिकार प्रदान नहीं कर सकी है। स्थिति यह है कि जम्मू-कश्मीर का हाईकोर्ट भी भारत के संविधान के पूरे दायरे में नहीं आता। क्या इसका दोष जम्मू-कश्मीर के अवाम पर डाला जा सकता है?घाटी में हालात 1947 से ही बिगड़ते आए हैं। आलम यह रहा कि मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की। प्रश्न यह है कि मर्ज क्या था और दवा कौन-सी थी? जम्मू-कश्मीर के लोग भारत से जुड़ना चाहते थे, आज भी जुड़ना चाहते हैं, मगर उन्हें रोकने के लिए देश की कई व्यवस्थाएं सामने खड़ी हैं। वहां यह कोई नई बात नहीं है कि कोई नौजवान गोली का शिकार हो जाता है, तो उसको विदा करने के लिए लोग निकल आते हैं। विचार यह करने की जरूरत है कि कश्मीर की वादी में लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, जबकि सरकार भी अपनी है और नेता भी अपने हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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