सनातन हिन्दू परम्पराओं में आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक का समय विशेष साधना का काल 'चातुर्मास' माना जाता है। इस काल में सर्वव्यापक भगवान् विष्णु एक स्वरूप से क्षीर सागर में शयन करते हैं और दूसरे स्वरूप से अपने भक्त राजा बलि के द्वार पर पाताल में द्वारपाल बन कर रहते हैं।
शास्त्रों के अनुसार इस काल में महत्वपूर्ण कार्यों के आरम्भ को ना करें। विवाह, गृहप्रवेश आदि मांगलिक कार्य भी इस कालांश में निषिद्ध कहे गए है।
संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज
क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। ताजा खबरों के लिए पढ़ते रहिए bhopalsamachar.com
आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।
व्यक्ति को इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें। ताजा खबरों के लिए पढ़ते रहिए bhopalsamachar.com
ग्रहण करें
देह शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य का।
वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध का।
सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकमुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन
या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें।
त्यागें
मधुर स्वर के लिए गुड़ का।
दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का।
शत्रुनाशादि के लिए कड़वे तेल का।
सौभाग्य के लिए मीठे तेल का।
स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का।
सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जहाँ तक हो सके न करें।
पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, मूली, पटोल एवं बैंगन आदि का भी त्याग कर देना चाहिए।
क्या करें कि लाभ हो
वैसे तो चातुर्मास का व्रत देवशयनी एकादशी से शुरू होता है परंतु द्वादशी,पूर्णिमा, अष्टमी और कर्क की सक्रांति से भी यह व्रत शुरू किया जा सकता है।
जो मनुष्य इन चार महीनों में मंदिर में झाड़ू लगाते हैं तथा मंदिर को धोकर साफ करते हैं उन्हें सात जन्म तक ब्राह्मण योनि मिलती है।
जो भगवान को दूध, दही, घी, शहद, और मिश्री से स्नान कराते हैं वे संसार में वैभवशाली होकर इन्द्र जैसा सुख भोगते हैं।
धूप, दीप, नैवेद्य और पुष्प आदि से पूजन करने वाला प्राणी अक्षय सुख भोगता है।
तुलसीदल अथवा तुलसी मंजरियों से भगवान का पूजन करने, स्वर्ण की तुलसी ब्राह्मण को दान करने पर परमगति मिलती है। ताजा खबरों के लिए पढ़ते रहिए bhopalsamachar.com
गूगल की धूप और दीप अर्पण करने वाला मनुष्य जन्म जन्मांतरों तक धनाढ्य रहता है।
पीपल का पेड़ लगाने, पीपल पर प्रति दिन जल चढ़ाने, पीपल की परिक्रमा करने, उत्तम
ध्वनि वाला घंटा मंदिर में चढ़ाने, ब्राह्मणों का उचित सम्मान करने, किसी भी प्रकार का दान देने, कपिला गौ का दान, शहद से भरा चांदी का बर्तन और तांबे के पात्र में गुड़ भरकर दान करने, नमक, सत्तू, हल्दी, लाल वस्त्र, तिल, जूते, और छाता आदि का यथाशक्ति दान करने
वाले जीव को कभी भी किसी वस्तु की कमी जीवन में नहीं आती तथा वह सदा ही साधन सम्पन्न रहता है।
जो व्रत की समाप्ति यानी उद्यापन करने पर अन्न, वस्त्र और शैय्या का दान करते हैं, वे अक्षय सुख को प्राप्त करते हैं तथा सदा धनवान रहते हैं।
वर्षा ऋतु में गोपीचंदन का दान करने वालों को सभी प्रकार के भोग एवं मोक्ष मिलते हैं। जो नियम से भगवान श्री गणेश जी और सूर्य भगवान का पूजन करते हैं, वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं तथा जो शक्कर का दान करते हैं उन्हें यशस्वी संतान की प्राप्ति होती है।
माता लक्ष्मी और पार्वती को प्रसन्न करने के लिए चांदी के पात्र में हल्दी भर कर दान करनी चााहिए तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बैल का दान करना श्रेयस्कर है।
चातुर्मास में फलों का दान करने से नंदन वन का सुख मिलता है। जो लोग नियम से एक समय
भोजन करते हैं, भूखों को भोजन खिलाते हैं, स्वयं भी नियमबद्ध होकर चावल अथवा जौ का भोजन करते हैं, भूमि पर शयन करते हैं उन्हें अक्षय र्कीत प्राप्त होती है। इन दिनों में आंवले से युक्त जल से स्नान करना तथा मौन रह कर भोजन करना श्रेयस्कर है।
चार्तुमास में क्या न करें?
श्रावण यानी सावन के महीने में साग एवं हरि सब्जियां, भादों में दही, आश्विन में दूध और कार्तिक में दालें खाना वर्जित है। किसी की निंदा-चुगली न करें तथा न ही किसी से धोखे
से उसका कुछ हथियाना चाहिए।
चातुर्मास में शरीर पर तेल नहीं लगाना चाहिए। कांसे के बर्तन में कभी भोजन नहीं करना चाहिए। जो अपनी इन्द्रियों का दमन करता है, वह अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त
करता है।