राकेश दुबे@प्रतिदिन। पिछले महीने सरकार ने नया टैक्स डाटा जारी किया। हालांकि इसकी एक कमी यह है कि इसके आंकड़े साल 2012-13 की आय-श्रेणी पर आधारित हैं। हालांकि इस डाटा को जारी करते हुए सरकार ने सिर्फ एक वित्तीय वर्ष के आंकड़े उजागर किए हैं, बीच के वर्षों के आंकड़े उसने नहीं दिए। फिर भी इस सीमित डाटा के निष्कर्षों ने अन्य स्रोतों से ज्ञात जानकारी की ही तस्दीक की है। इन्हें इस साल के आर्थिक सर्वे में पेश किया गया है।
आर्थिक सर्वे के मुताबिक, 1950 के दशक में देश की कुल राष्ट्रीय आमदनी में शीर्ष एक फीसदी आबादी का हिस्सा लगभग 10 प्रतिशत था, लेकिन 1970 के दशक के अंत तक यह चार फीसदी के नीचे आ गया था। फिर 1990 के दशक के आखिर तक तेजी से बढ़ते हुए शीर्ष एक प्रतिशत धनाढ्यों का अंश सात फीसदी हो गया था। लेकिन ताजा आकलन के मुताबिक, साल 2012 में उनका शेयर 13 प्रतिशत हो गया था। आजादी के बाद यह सबसे अधिक हो गया है, बल्कि महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले 15 वर्षों में शीर्ष एक फीसदी लोगों की राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी दोगुनी हो गई है। देश की आबादी के टॉप 0.1 प्रतिशत अमीरों के संदर्भ में भी यही सच्चाई है। साल 2013 में देश की कुल आय में उनका शेयर 5.1 प्रतिशत था, जबकि 1990 के दशक के आखिरी वर्षों में औसतन 2.5 फीसदी था।
साफ है, आजादी के बाद असमानता में बढ़ोतरी अपने सर्वोच्च स्तर पर है और समान प्रति व्यक्ति आय वाले अन्य देशों की तुलना में अधिक है। इनमें से ज्यादातर निष्कर्ष स्वाभाविक ही थे; डाटा ने अन्य स्रोतों से मालूम तथ्यों को सिर्फ पुष्ट किया है। उदाहरण के लिए, नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के सर्वेक्षणों ने लगातार यह दिखाया है कि उपभोग में गैर-बराबरी की दर बढ़ रही है। इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे ने भी आय में बढ़ती असमानता को दर्शाया है।
निष्पक्षता के सिद्धांत के नजरिये से धनाढ्यों को रियायतें देना न सिर्फ अनुचित है, बल्कि यह पोषण, शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे जरूरी क्षेत्रों में सरकार की खर्च करने की शक्ति को भी कम करता है। इन क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति के लिहाज से हमारा खर्च न सिर्फ बहुत कम है, बल्कि पिछले दो दशकों से यह अपनी पुरानी जगह पर ठिठका हुआ है। इस पूरी अवधि में जब हमारी अर्थव्यवस्था आठ फीसदी से अधिक की दर से बढ़ी है, जीडीपी के अनुपात में टैक्स वहीं का वहीं बना रहा।
आज यह दर लगभग 16.8 प्रतिशत है और गौर करने वाली बात यह है कि 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के वक्त भी लगभग यही थी। भारत में कम टैक्स वसूली की मुख्य वजह कम लोगों द्वारा टैक्स दिया जाना है, वित्त मंत्रालय ने आर्थिक सर्वे में यह माना है। हमारी आबादी का बमुश्किल दो फीसदी हिस्सा टैक्स देता है। सरकारों ने सिर्फ टैक्स दरों और छूटों ने धनाढ्यों को फायदा नहीं पहुंचाया है; आर्थिक सर्वे यह बताता है कि साल 2015-16 में इस वर्ग को विभिन्न रूपों में करीब 10 खरब रुपये की राशि का लाभ मिला।
सरकार धन कुबेरों को रियायती कर्ज के अलावा भी कई तरह के संरक्षण व कर्ज माफी देती रही है, जिसने देश के बैंकिग क्षेत्र को लगभग धराशायी कर दिया है। वहीं दूसरी तरफ, कृषि, पोषण, शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी जरूरी सार्वजनिक सेवाओं के खर्च में भारी कटौती की जा रही है। पिछले दो साल में, जबकि देश के अनेक इलाके सूखे की मार झेलते रहे, गरीबों व ग्रामीण इलाकों के प्रति सरकार का रवैया काफी उपेक्षा भरा रहा है। वह देश के नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने की बजाय धनिकों के हितों की रक्षा को लेकर कहीं अधिक चिंतित दिखती रही।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए