IAS थेटे ने 'स्वच्छता मिशन' को बताया स्वीपर वाला काम

भोपाल। खुद को मप्र का सबसे शोषित दलित अधिकारी बताने वाले आईएएस रमेश थेटे अब आईएएस राधेश्याम जुलानिया से भिड़ गए हैं। श्री जुलानिया उनके रिपोर्टिंग आॅफीसर हैं। थेटे का आरोप है कि जुलानिया ने उन्हें टॉयलेट साफ करने का काम देकर स्वीपर बना दिया है। आप इसे बात का बतंगड़ बनाना कह सकते हैं, क्योंकि उन्हे टायलेट साफ करने का नहीं बल्कि 'स्वच्छता मिशन' की लीडरशिप दी गई है और यह प्रधानमंत्री मोदी का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है। यदि 'स्वच्छता मिशन' का काम देखने वाले अफसरों को स्वीपर माना जाए तो देश में ऐसे और भी कई अफसर मिल जाएंगे। सवाल यह है कि यदि यह काम थेटे से लेकर किसी दूसरे को दे दिया जाए तो क्या वह भी 'स्वीपर' हो जाएगा। 

सबसे पहले पढ़िए थेटे को दिए गए अधिकार 
तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की शासन को प्रस्तुत होने वाली द्वितीय अपील की सुनवाई, 
सूचना के अधिकार और जन सुनवाई से संबंधित प्रकरण, 
मानवाधिकार और एससी-एसटी आयोग के प्रतिवेदन पर कार्यवाही, 
कोर्ट के प्रकरणों की निगरानी, 
विधानसभा के प्रश्नों, शून्यकाल और ध्यानाकर्षण की सूचना और आश्वासनों की पूर्ति की समीक्षा, 
विधेयक, पंचायतों का गठन, विकास खंडों व ग्रामसभाओं का पुनर्गठन की फाइलें एसीएस को प्रस्तुत करना, 
मुख्य सचिव व सीएम मॉनिट, सीएम हेल्प लाईन के प्रकरणों की समीक्षा व निगरानी, 
राज्य जल एवं स्वच्छता मिशन व मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम। 

जो काम थेटे को नहीं दिए गए 
रोजगार गारंटी परिषद, ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण के मामले, राजीव गांधी जल ग्रहण प्रबंधन मिशन, केंद्र और राज्य सरकार की बैठकों में विभाग का प्रतिनिधित्व करना


ये सभी ऐसे काम हैं जिन्हे पर्दे के पीछे मलाई वाला काम कहा जाता है। इस मामले में थेटे विभागीय मर्यादा में रहते हुए अपनी बात रख सकते थे परंतु उन्होंने बतंगड़ बना दिया। मामले को जातिवाद पर लाकर खड़ा कर दिया। थेटे ने जुलानिया को एक धमकी भी दी है कि यदि 'यदि मुझे न्याय नहीं मिला तो जुलानिया के भ्रष्टाचार उजागर करूंगा।' सवाल यह है कि यदि उन्हे न्याय मिल जाता तो क्या वो भ्रष्टाचार का समर्थन करते। 

बताते चलें कि रमेश थेटे खुद को मप्र का सबसे शोषित दलित अफसर बताते हैं परंतु मप्र में दलित अधिकारी/कर्मचारियों का सबसे बड़ा संगठन 'अजाक्स' उनके मुद्दों से इत्तेफाक नहीं रखता। 'अजाक्स' अक्सर खुद को रमेश थेटे के विवादों से दूर कर लेता है। यहां तक कि 'अजाक्स' के सबसे बड़े सम्मेलन में भी थेटे को आमंत्रित तक नहीं किया गया था। प्रश्न यह है कि यदि थेटे एक शोषित दलित अफसर हैं तो दलित समाज का समर्थन उन्हें क्यों नहीं मिलता। पिछले दिनों उन्होंने अपना एक नया दलित संगठन बनाने का फैसला किया था, जब दलितों का समर्थन नहीं मिला तो दलित कर्मचारियों के बजाए केवल कर्मचारियों का संगठन भर रह गया। यह संगठन भी अब तक सक्रिय नहीं हो पाया है। 

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