इलाहाबाद। मोदी मंत्रिमंडल के कल होने वाले विस्तार में यूपी के मिर्जापुर से अपना दल की सांसद अनुप्रिया पटेल को भी जगह मिलनी लगभग तय है। अनुप्रिया के लिए यह पल बेहद अहम होगा, लेकिन इस शपथ ग्रहण में उनका परिवार वहां मौजूद नहीं होगा। दरअसल बीजेपी से तालमेल को लेकर अनुप्रिया और उनके परिवार वालों के बीच की दूरी अब और भी बढ़ गई है। पार्टी दो खेमों में बंटी हुई है। दोनों खेमों में एक-एक सांसद हैं। अनुप्रिया के साथ पार्टी का इकलौता विधायक भी है तो मां कृष्णा पटेल के साथ परिवार के अन्य सदस्य।
डेढ़ साल पुरानी है मां-बेटी के बीच की लड़ाई
दो दिन पहले पार्टी के संस्थापक डॉ सोनेलाल पटेल के जन्म दिन पर अनुप्रिया ने बनारस में रैली कर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को बुलाया तो मां कृष्णा पटेल ने उसी दिन इलाहाबाद की रैली में हजारों की भीड़ जुटाकर अपनी ताकत का एहसास कराया। मां-बेटी के बीच मची इस खींचतान के चलते पार्टी के कार्यकर्ता पशोपेश में हैं।
उन्हें समझ नहीं आ रहा कि आखिर वह किसका दामन थामें
कार्यकर्ताओं को उम्मीद थी कि मां-बेटी के बीच डेढ़ साल पहले छिड़ी लड़ाई वक्त के साथ थम जाएगी, लेकिन नफरत की खाई ख़त्म होने के बजाय और चौड़ी होती चली गई। इन दोनों रैलियों और शपथ ग्रहण को लेकर मां-बेटी के फिर से आमने-सामने होने पर पुराने कार्यकर्ताओं की मुश्किल और बढ़ गई है। कुछेक ने नये ठिकाने की तलाश कर ली है तो तमाम लोग फिलहाल घर बैठ गए हैं। मां-बेटी के बीच छिड़ी जंग का खामियाजा आखिरकार पार्टी और उसके संस्थापक दिवंगत डॉ सोनेलाल पटेल के सपने को भुगतना पड़ रहा है।
विरासत मिली मां को, बेटी मार ले गई बाजी
दरअसल साल 2009 में कानपुर में हुए सड़क हादसे में डॉ सोनेलाल पटेल की मौत के बाद कार्यकर्ताओं ने एक राय से उनकी पत्नी कृष्णा पटेल को अध्यक्ष चुना था। कृष्णा पटेल अध्यक्ष ज़रूर थीं, लेकिन दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट अनुप्रिया जल्द ही कार्यकर्ताओं में ज़्यादा लोकप्रिय हो गईं। साल 2012 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में अनुप्रिया बनारस की रोहनिया सीट से चुनाव लड़ीं और पार्टी की इकलौती विधायक चुनी गईं। उस चुनाव में बाहुबली अतीक अहमद भी इलाहाबाद में अपना दल से चुनाव लड़े थे, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
मोदी के साथ ही बेटी भी बनी थी सांसद
2014 के लोकसभा चुनाव में अपना दल ने बीजेपी से समझौता किया। समझौते में अपना दल को दो सीटें मिलीं। यूपी में बीजेपी को सात सीटों पर हार का सामना करना पड़ा, लेकिन अपना दल दोनों सीटें जीतने में कामयाब रहा। मिर्जापुर से अनुप्रिया पटेल सांसद चुनीं गईं तो प्रतापगढ़ से हरबंस सिंह को जीत हासिल हुई। सांसद चुने जाने के बाद अनुप्रिया को विधायकी से इस्तीफ़ा देना पड़ा।
तो यह है लड़ाई की असली जड़
अनुप्रिया के इस्तीफे से खाली हुई सीट पर अपना दल ने राष्ट्रीय अध्यक्ष कृष्णा पटेल को मैदान में उतारा। संयोगवश कृष्णा पटेल को यहां हार का सामना करना पड़ा। रोहनिया सीट से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को जीत नसीब हुई। यह हार ही परिवार और पार्टी में फूट की सबसे बड़ी वजह बनी। कृष्णा पटेल को लगा कि बीजेपी कार्यकर्ताओं ने उनके पक्ष में वोटिंग नहीं कराई और अनुप्रिया के ख़ास सिपहसलारों ने पूरे मन से काम नहीं किया। कृष्णा पटेल इस हार से इतनी बौखला गईं कि उन्होंने बीजेपी से गठबंधन तोड़ने का एलान कर दिया। अनुप्रिया मां के इस फैसले से सहमत नहीं थी और वह विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी से ही गठबंधन जारी रखना चाहती थीं।
हार के बाद मां ने किया बेटी को पार्टी से बाहर
बीजेपी से गठबंधन के सवाल पर मां-बेटी में इस कदर तकरार बढ़ी कि पहले परिवार में फूट पड़ी, फिर पार्टी में दरार आ गई। मां-बेटी ने कुछ दिनों में सार्वजनिक तौर पर एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी शुरू कर दी। खेमेबाजी होने पर पार्टी पदाधिकारी और कार्यकर्ता भी टुकड़ों में बंट गए। कृष्णा पटेल ने अनुप्रिया समर्थकों को पद से हटाना शुरू किया तो अनुप्रिया के तेवर और तीखे हो गए। कृष्णा पटेल ने बाद में अनुप्रिया को भी पार्टी से निकालने का एलान कर दिया तो अनुप्रिया समर्थकों ने उन्हें अध्यक्ष घोषित कर अपने गुट को ही असली अपना दल करार दिया।
दोनों गुटों में हैं एक-एक सांसद
पार्टी के दूसरे सांसद हरबंस सिंह कृष्णा पटेल के साथ ही बने हुए हैं तो 2014 के उपचुनाव में प्रतापगढ़ की विश्व्नाथगंज सीट से विधायक चुने गए डॉ आरके वर्मा ने अनुप्रिया गुट में आस्था जताई। अनुप्रिया के अलग होने के बाद उनकी बड़ी बहन इंजीनियर पल्लवी पटेल भी सियासत में दांव आजमाने उतर आईं। मां कृष्णा पटेल के गुट में वह पार्टी की महासचिव भी हैं।
घर की महाभारत से कार्यकर्ता पशोपेश में
घर की इस महाभारत से पार्टी के पुराने और वफादार कार्यकर्ता परेशान हैं। वह समझ नहीं पा रहे हैं कि वह जाएं तो आखिर किधर जाएं। घर का यह झगड़ा अभी चुनाव आयोग में पेंडिंग है। विधानसभा चुनाव सिर पर है, लिहाजा कोई बेहतर रास्ता नहीं सूझने पर तमाम कार्यकर्ता चुप होकर घर बैठ गए हैं। ज़ाहिर है अगर वक्त रहते परिवार की इस जंग का कोई सार्थक नतीजा नहीं निकला, तो पार्टी के अस्तित्व पर ही संकट के बादल और गहराई से मंडराने लगेंगे।