राम जीवन का मंत्र है। राम मृत्यु का मंत्र नहीं है। राम गति का नाम है, राम थमने, ठहरने का नाम नहीं है। सतत वितानी राम सृष्टि की निरंतरता का नाम है। राम, महाकाल के अधिष्ठाता, संहारक, महामृत्युंजयी शिवजी के आराध्य हैं। शिवजी काशी में मरते व्यक्ति को (मृत व्यक्ति को नहीं) राम नाम सुनाकर भवसागर से तार देते हैं। राम एक छोटा सा प्यारा शब्द है। यह महामंत्र - शब्द ठहराव व बिखराव, भ्रम और भटकाव तथा मद व मोह के समापन का नाम है। सर्वदा कल्याणकारी शिव के हृदयाकाश में सदा विराजित राम भारतीय लोक जीवन के कण-कण में रमे हैं। श्रीराम हमारी आस्था और अस्मिता के सर्वोत्तम प्रतीक हैं। भगवान विष्णु के अंशावतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम हिंदुओं के आराध्य ईश हैं। दरअसल, राम भारतीय लोक जीवन में सर्वत्र, सर्वदा एवं प्रवाहमान महाऊर्जा का नाम है।
हमारे पौराणिक धर्मग्रंथों में राम नाम की सत्यता के असंख्य प्रमाण भरे पड़े हैं। मध्ययुगीन भक्ति कालीन सभ्यता से आधुनिक काल तक असंख्य प्रमाण देखने व सुनने में आए हैं। प्राचीन प्रमाण- सतयुग के प्रारंभ काल से ही लें तो महर्षि वाल्मीकि का उदाहरण सामने आता है, वे तो उनके उल्टे शब्द ‘मरा’ को ही जपते-जपते ब्रह्ममय हो गए। तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ लिखा। उसका हर शब्द मंत्र है। यदि उन मंत्रों को हृदयंगम कर लिया जाए, जप-तप-साधना के माध्यम से सिद्ध कर लिया जाए तो क्या यह प्रमाण नहीं हैं? इसी रामचरित मानस के बल पर तो अभी भी लाखों लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रयासरत हैं। प्राचीन काल के और भी बहुत से प्रमाण हैं जिनमें गणिक, गिद्ध, अजामिल और शबरी जैसे महान भक्त हुए हैं जिन्होंने राम नाम की डंका बजाया था। सदन कसाई, केवट, शरभंग, अंगद, जामवंत, विभीषण, हनुमान, भारद्वाज, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि ऋषि महर्षि भी हुए जिन्होंने राम नाम सत्यता और यथार्थता को महिमा मंडित किया।
राम नाम के सार व सत्यता के असंख्य प्रमाण मध्यकाल में भी बहुत मिलते हैं जिसे आजकल के वैज्ञानिक भी नहीं नकार सकते। क्योंकि सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास, मीराबाई, भक्त रैदास, नरसी मेहता, संत तुकाराम, दादू, बिन्दू, गुरु नानक आदि महामानवों ने तत्कालीन समय में भक्तिमय काव्य महाकाव्यों में राम नाम की सरिता बहा कर विश्व को आलोकित किया था। उनके काव्य महाकाव्यों के शब्द, स्वर संपूर्ण रसमय अमृत के समान हैं जिन्हें पढ़कर, सुनकर हृदय रोमांचित हो उठता है।
इसी प्रकार कबीरादास जी के जीवन की भी एक घटना है। कबीर जुलाहे थे। सूत कातकर कपड़ा बनाना और ग्राहकों को प्रसन्न रखना उनका काम था। वे जिस भी ग्राहक को कपड़े यह कहकर देते कि, ‘‘राम यह कपड़ा आपके ही लिए है, यह कपड़ा राम मैंने आप ही के लिए बनाया है।’’ अब ग्राहक चाहे उनके दाम देता या न देता, वह तो उनको राममय समझकर दे ही देते।
इसी प्रकार की मनःस्थिति भक्त रैदास की भी थी। भक्त रैदास जूते बनाते और ग्राहकों को यह कहकर दे देते कि, ‘‘राम ! ये जूते मैंने आप ही के लिए बनाए हैं, ये जूते आपके ही हैं।’’ अब ग्राहक उन जूतों के दाम रैदास को देते चाहे न देते, वे तो उन्हें जूते दे देते थे।
इस प्रकार भक्तिकाल के ऐसे असंख्य प्रमाण हैं, जिन्हें आजकल के अतिबुद्धिवादी लोगों की नासमझी बुद्धि क्या समझेगी? आधुनिक प्रमाण- वर्तमान समय में भी बहुत प्रमाण हैं। एक तरफ महात्मा गांधी, संत विनोबा भावे, संत ज्ञानेश्वर, एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, ओशो आदि तो दूसरी तरफ आज भी हमारे समक्ष ऐसे अनेक सिद्ध पुरुष हैं, जिन्होंने राम नाम की दिव्य अलौकिक महिमा को आलोकित किया है। वे अभी वर्तमान समय में राम नाम के अमृत रूपी रस का स्वयं कर ही रहे हैं। सर्वसाधारण को भी पान करवा रहे हैं। कुछ नाम ऐसे हैं जो अपने नाम के कारण प्रसिद्ध हैं।
यह एक अद्भुत सत्य है कि सगुण रूप में राम में समस्त मानवीय एवं दैवीय गुणों को प्रतिष्ठित करनेवाले महात्मा तुलसीदासजी भी राम को निराकार ब्रह्म का अवतार ही मानते हैं आचार्य केशवदास ने भी अपने महाकाव्य रामचंद्रिका में राम को निराकार, साकार और नराकार के रूप में प्रतिष्ठित किया है। वे निर्गुण अवस्था में राम को साक्षात् ब्रह्म के रूप में स्वीकारते हैं। सुधारवादी, पाखंड व कर्मकांड विरोधी संत कबीर के आराध्य भी राम ही हैं। वे अपने राम को सर्वथा निर्गुण, व्यापक, विश्वोतीर्ण एवं विश्वमय ईश्वर मानते हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी रमैनी में कहा है कि उनके राम दशरथ सुत नहीं हैं, उनके राम असीम हैं। ‘दशरथ कुल अवतरि नहीं आया, नहिं लंका के राव सताया।’ वास्तव में राम अनादि हैं, निराकार हैं, निर्गुण हैं, परंतु भक्तों के स्नेहवश तथा ब्रह्मादि देवताओं की प्रार्थना से वे दाशरथि राम बनना स्वीकारते हैं। निर्गुण और सगुण राम का यह महाभेद मनुष्य ही नहीं वरन् देवताओं के भी मन-मस्तिष्क में भ्रम और अविश्वास उत्पन्न कर देता है। माता पार्वती की इस उलझन का, ऐसे ही भ्रम का वैज्ञानिक तरीके से भेदन करते हुए शिवजी कहते हैं, जैसे जल और ओले में भेद नहीं है, दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण, निराकार और साकार एक ही हैं। श्रीरामचंद्रजी तो व्यापक ब्रह्म, परमानंद स्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। प्रकाश के भंडार हैं, जीव, माया और जगत के स्वामी हैं। वे ही रघुकुल मणि श्री रामचंद्रजी मेरे स्वामी हैं। हे पार्वती ! जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे राम मंत्र देकर मुक्त कर देता हूँ वही मेरे स्वामी हैं।
वास्तव में राम अनादि ब्रह्म ही हैं। अनेकानेक संतों ने निर्गुण राम को अपने आराध्य रूप में प्रतिष्ठित किया है। राम नाम के इस अत्यंत प्रभावी एवं विलक्षण दिव्य बीज मंत्र को सगुणोपासक मनुष्यों में प्रतिष्ठित करने के लिए दाशरथि राम का पृथ्वी पर अवतरण हुआ है। कबीरदासजी ने कहा है - आत्मा और राम एक है-
राम नाम कबीर का बीज मंत्र है। रामनाम को उन्होंने अजपाजप कहा है। यह एक चिकित्सा विज्ञान आधारित सत्य है कि हम २4 घंटों में लगभग २१६०० श्वास भीतर लेते हैं और २१६०० उच्छ्वास बाहर फेंकते हैं। इसका संकेत कबीरदाजी ने इस उक्ति में किया है- सहस्र इक्कीस छह सै धागा, निहचल नाकै पोवै। मनुष्य २१६०० धागे नाक के सूक्ष्म द्वार में पिरोता रहता है। अर्थात प्रत्येक श्वास - प्रश्वास में वह राम का स्मरण करता रहता है।
राम शब्द का अर्थ है - रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम हैं इसी तरह कहा गया है - रमते योगितो यास्मिन स रामः अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं। इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है - राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः....अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, विशिष्ट तथ्य यह है कि राम शब्द एक महामंत्र है।
राम नाम निर्विवाद रूप से सत्य है और यह भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि राम नाम के निरंतर जाप से सद्गति प्राप्त होती है। राम नाम की इस अद्भुत महिमा को श्रीरामचरितमानस के माध्यम से तुलसीदासजी ने अनेक कथा प्रसंगों में प्रकट किया है। भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर अनेक राक्षस राम के हाथों मृत्यु को प्राप्त होते हैं और राम उन्हें उदारतापूर्वक निजधाम का पुरस्कार दे देते हैं सुग्रीव का भाई बाली राम द्वारा अभयदान देने की बात पर कहता है- मुनिगण जन्म-जन्म में अनेक प्रकार के साधन करते रहते हैं फिर भी अंतकाल में उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता है। समूची राक्षसी सेना को रामजी ने निजधाम दिया है। आदिकवि महर्षि बाल्मीकि ने लिखा है- मृत्यु के समय ज्ञानी रावण राम से व्यंग्यपूर्वक कहता है- तुम तो मेरे जीते-जी लंका में पैर नहीं रख पाए। मैं तुम्हारे जीते-जी तुम्हारे सामने तुम्हारे धाम जा रहा हूँ।
( साभार माननीय श्री मिथिलेश द्विवेदी जी)