जितेंद्र यादव/इंदौर। वह कल तक गांव वालों के लिए अपशगुन था। सामने दिख जाता तो लोग रास्ता बदल लेते। उलाहना देते थे कि सारा दिन बेकार जाएगा। पर अब वही युवक सबके लिए प्रेरणा बन गया है। उसी गांव के लोग स्वागत कर रहे हैं। मामा के गांव तक उसकी पूछपरख बढ़ गई है। लोग अपने बच्चों को उससे मिलवाने ला रहे हैं और अलग-अलग स्कूलों में उसे बच्चों के मोटिवेशन के लिए बुलाया जा रहा है।
ये कहानी है धार जिले के खाचरौदा गांव के 26 वर्षीय दृष्टिहीन संजय यादव की। मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग (एमपीपीएससी) की वर्ष 2012 की परीक्षा के अब जाकर घोषित हुए रिजल्ट में वह नायब तहसीलदार चुना गया। साधारण किसान परिवार के संजय को पढ़ाई के लिए घर और गांव छोड़ना पड़ा।
दूसरे तो ठीक, अपनों से भी मदद नहीं मिली। छठी कक्षा तक गांव में पढ़ने के बाद सातवीं से वह इंदौर आ गया और प्रकाश नगर के ब्लाइंड स्कूल में दाखिला ले लिया। दसवीं के बाद 11वीं और 12वीं की पढ़ाई उसने नंदानगर के सरकारी हायर सेकंडरी स्कूल से की।
इसके बाद रामबाग के संस्कृत महाविद्यालय से ग्रेजुएशन किया। इस दौरान स्कॉलरशिप से वह अपनी पढ़ाई का खर्च निकालता रहा। संजय बताते हैं, तब तक मैंने अपना ध्येय चुन लिया था कि मुझे प्रशासनिक सेवा में जाना है।
पहले ऐसे आड़े आई दृष्टिहीनता
गांव में पढ़ाई के दौरान संजय को लिखने में काफी दिक्कत आती थी। गांव के शिक्षकों को भी पता नहीं था कि दृष्टिहीन विद्यार्थियों को लिखने के लिए राइटर की सुविधा मिलती है। लिखने में परेशानी होने से पांचवीं और सातवीं में वह फेल भी हुआ था।
लगभग 12 साल पहले संजय की मां सुगनाबाई की मृत्यु हो जाने से उसके पिता अशोक यादव ने दूसरी शादी कर ली थी। उपेक्षा के कारण करीब छह माह बाद ही संजय ने घर छोड़ दिया।
कमतरी पर ऐसे हासिल की जीत
संजय बताते हैं, सबसे पहले मैंने अपनी याददाश्त को मजबूत बनाया। पीएससी कोचिंग के दौरान 60 प्रतिशत पढ़ने पर ही याद कर लेता था। मेरी पढ़ाई को देखकर ही कोचिंग के सामान्य साथियों में मेरे प्रति बराबरी का भाव आ गया।
सभी साथी ग्रुप डिस्कशन से पढ़ने लगे। वे किताबें पढ़कर सुनाते और मैं मोबाइल में उसकी रिकार्डिंग कर लेता था। दिक्कत आने पर एक-दो बार रिकार्डिंग और सुन लेता। मैं अपने मोबाइल फोन में नंबर सेव नहीं करता। लगभग 700 नंबर मुझे याद हैं।
(श्री जितेन्द्र यादव, नईदुनिया इंदौर के पत्रकार हैं। )