राकेश दुबे@प्रतिदिन। करंट बॉयोलॉजी नाम की शोध पत्रिका में प्रकाशित एक ताजा अध्ययन के अनुसार अगर यही हाल रहा, तो सन 2100 तक दुनिया से जंगलों का पूरी तरह से सफाया हो जाएगा। तब न अमेजन के जंगलों का रहस्य बच पाएगा, न अफ्रीका के जंगलों का रोमांच रहेगा और न हिमालय के जंगलों की समृद्धि ही बच पाएगी। ग्लोबल वार्मिंग की ओर बढ़ती दुनिया में हम जिन जंगलों से कुछ उम्मीद बांध सकते हैं, वे तो पूरी तरह खत्म हो जाएंगे। फिलहाल दुनिया में महज 301 लाख वर्ग किलोमीटर जंगल ही बच गया है, जो पूरी दुनिया की धरती का 23 फीसदी हिस्सा है।
जंगलों के खत्म होने का अर्थ है, धरती की ऐसी बहुत बड़ी जैव संपदा का नष्ट हो जाना, जिसकी भरपायी शायद फिर कभी न हो सके। अभी तक नष्ट होते जंगलों और भविष्य की उनकी रफ्तार को देखते हुए दुनिया भर के वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि यह धरती अपने जीवन में छठी बार बड़े पैमाने पर जैव संपदा के नष्ट होने के कगार पर पहुंच चुकी है। फर्क सिर्फ इतना है कि इसके पहले जब भी मौसम या युग बदलने के साथ ऐसा हुआ, हमेशा ही उसके कारण प्राकृतिक थे, लेकिन इस बार यह मानव निर्मित है। पहले प्रकृति की कुछ जैव संपदा नष्ट होती थी, तो उसके स्थान पर नई स्थितियों के हिसाब से नई विकसित हो जाती थी। इस बार ऐसे नए विकास की संभावना कम ही दिखाई दे रही है।
हालांकि इस मामले में सिर्फ निराशा ही निराशा हो, ऐसा नहीं है। पिछले कुछ साल से पर्यावरण को लेकर जिस तरह की चेतना पूरी दुनिया में फैली है, उसके चलते लोगों को जंगलों की जरूरत और अहमियत समझ में आने लगी है। यह जरूर है कि इसके बावजूद बढ़ती आबादी की जरूरतें पूरी करने के ऐसे विकल्प हम अभी तक नहीं खोज पाए हैं, जिनमें जंगलों को काटने की जरूरत न पड़े। एक सोच यह भी है कि जब तक हम जंगल काटने पर पूरी तरह से रोक नहीं लगाते, तब तक विकल्प खोजने का दबाव हम पर नहीं बनेगा और हम तमाम चेतना के बावजूद जंगलों का सफाया लगातार करते रहेंगे।
कहीं पर यह सरकारों की मजबूरी के कारण होगा, तो कहीं उद्योग जगत के मुनाफे के लिए। इस बीच दुनिया में कुछ ऐसे प्रयोग भी हो रहे हैं, जो भविष्य में जंगलों के विस्तार की उम्मीद भी बंधाते हैं। जैसे एक प्रयोग है वर्टिकल फार्मिंग यानी बहुमंजिला खेती का। ऐसे ढांचे बनाने की कोशिश हो रही है, जिसमें थोड़ी सी जमीन पर कई मंजिल बनाकर हर मंजिल पर खेती की जाए, ताकि बाकी बची हुई जमीन पर फिर से जंगल लगाए जा सकें। लेकिन फिलहाल यह दूर की कौड़ी लगता है और फिर घाटे का सौदा तो है ही। अगर धरती को बचाना है, तो ऐसे बहुत सारे बड़े काम करने ही होंगे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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