
कलाकारों को चूंकि एक औसत मनुष्य से परिष्कृत माना जाता है। इसलिए यह अपेक्षा आम रहती है कि अत्यधिक विवेक सम्पन्न और स्वतंत्रचेता होने के चलते भले-बुरे की सराहना या निंदा वस्तु, घटना या व्यक्ति के गुण-दोष के आधार पर सहज भाव से करते रहेंगे। ऐसे में 18 जवानों की नृशंस हत्या पर उनकी चुप्पी मूलत: कला और उसकी मूल मानवीयता का अपमान सरीखा है। किसी के यहां घटी गमी या खुशी की घटना में एक संदेश के जरिये खुद को शरीक कर लेना; आधुनिक सभ्यता का ही नहीं बल्कि युगों से चलन रहा है।
संवेदनाएं जताना एक मानवीय सरोकार है। इसको न जताने से किसी की नागरिकता खतरे में तो नहीं पड़ती, लेकिन मानवीयता और सभ्य व्यवहार जरूर संकटग्रस्त हो जाते हैं वैसे यह सीधे-सीधे भारतीयता की अवधारणा पर ही चोट करनेवाला है परन्तु इसकी मांग करने वालों को समझना चाहिए कि हम न तो पाकिस्तान बन सकते हैं और न यहां उस तरह की कट्टरवादी सोच का दमघोंटू परिवेश ही बन सकता है।
पाकिस्तान के संस्कारों पर भी सवालिया निशान है। वहां के सैन्य अफसर, नेता, कलाकार और आतंक के सौदागर एक ही जुबान बोल रहे हैं। भारत के विरुद्ध नस्लीय टिप्पणी करने वाले मार्क अनवर के विरुद्ध ब्रिटिश चैनल द्वारा उठाये गये कदम की प्रतिध्वनि अन्य क्षेत्रों में भी दिखाई दे तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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