राकेश दुबे@प्रतिदिन। नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड भारत प्रवास पर हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत को अपने पहले दौरे के रूप में चुनकर उन्होंने परंपरा का निर्वहन किया है और यह इस बात का संकेत है कि वह दोनों देशों के रिश्ते को तत्काल संवेदना के धरातल पर भी खड़ा करना चाहते हैं| जब प्रचंड पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो परंपरा को तोड़कर वे पहले चीन चले गए थे. जाहिर है, इन आठ वर्षो में एक समय हिंसक माओवादी विद्रोह का नेतृत्व करने वाले इस नेता के अंदर समय की व्यावहारिकता की समझ बढ़ी है।
दुर्भाग्य से नेपाल की पिछली केपी शर्मा ओली की सरकार के समय भारत के साथ अनावश्यक कटुता बढ़ी थी। नेपाल के संविधान के विरुद्ध मधेसियों और जनजातियों के आंदोलन से जो नाकेबंदी हुई, उसका आरोप भारत पर मढ़ा जाता रहा। निस्संदेह, नाकेबंदी से भारत की ओर से आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हुई और यह उसके लिए बड़े संकट का कारण बन गया, लेकिन इसमें भारत का कोई दोष नहीं था।
मधेसियों का आंदोलन हिंसक हो गया था और उसमें किसी तरह ट्रकों का जाना संभव नहीं था। हालांकि इस समय भारत और नेपाल के संबंध धीरे-धीरे सामान्य हो रहे हैं, जिस नेपाली राजदूत तो भारत समर्थक होने का आरोप लगाकर ओली सरकार ने हटा दिया था, उसे प्रचंड ने पुन: बहाल किया है। साथ ही, उन्होंने भारत आने के पहले ऐसे बयान दिए हैं, जिनसे दोनों देशों के बीच विश्वास और सहकार के संबंध पुनर्स्थापित हो सकें। उन्होंने कहा है कि नरेन्द्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने नेपाल आकर हम सबको इतना ज्यादा प्रेरित किया। चीन के बारे में उनका मानना है कि वह विचारधारा पर नहीं चलता, उसका मुख्य लक्ष्य अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति और मुनाफा है।
इन बयानों में हम कम-से-कम तत्काल एक नए प्रचंड को देख सकते हैं, जिसकी आवाज में आठ साल पूर्व के मुकाबले संयम, संतुलन ज्यादा है और जो भारत के साथ सद्भाव को महत्त्व देता है। वास्तव में नेपाल-भारत संबंधों का चरित्र ऐसा है, जिसकी तुलना किसी अन्य दो देशों के संबंधों से नहीं की जा सकती। यह संबंध कायम रहे यही दोनों देशों की जनता की सामूहिक चाहत है और इसी में दोनों देशों का हित है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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